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जिनके मनो सदा आनम्दित करते रहते है, जिन्होंने शाङ्ग

नामक धनुप्का दण्ड हाथमें ले रक्खा दै, जो इन्त्रियोंके

अविषय, निराकार और केवल्यस्वरूप परत हैं, वे ही प्रभु

मक्तोंकी भक्तिफे कारण बहो पुरुषरूपम प्रकट हुए थे । जिनके

उपनिफद्यर्णित स्वरूपो येद मी नहीं आनते, अना आदि

देवता मी नहीं समझ पति, उन्हीं मगवान्‌ विष्णुका उन

तपस्वी मुनिने अपने नेति प्रत्यक्ष दर्शन किया और आनन्द -

अद्निभिन्दु बोखे-ॐ कमलके समान नेत्रोंवाले

भगवान्‌ नारायण ! आप कदर और मीतरको पित्र करनेवाछे

हैं; आपको नमस्कार है। आपके सदसो मस्तक, शलो नेत्र

और ससो पैर हैँ। आप अन्तर्यामी पुरुष हैं, आपके दोनों चरण

रुक प्रकारके दन्दोंका नियारण करनेषाले हैं । छन्द्रादि

देवताओंसे वम्दित विष्णो ! आपके उम चरणोंको मैं दन्द्र-

रदित शान्ते जुद्धिसे प्रणाम करता हूँ । बृदस्पतिकी वाणी भी

जिनकी स्थुति फरनेमें समर्य नहीं हो पाती, उन भगयानकी

स्तुति करनेके किये इस छोकमें कौन समर्थ हो सकता दै

परंतु यहाँ भक्ति ही प्रकत है ( भगवान्‌ केयछ भक्तिसे ही

प्रसन्न हो जाते हैं ) जो भगवान्‌ विष्णु पुरातन क्षा आदि-

के भी मन-वाणीके अगोचर हैं, उनकी स्थुति मेरे-जेंसे

अ्स्बुद्धि पुरुष कते कर सक्ते हैं। जह वागीका प्रवेश नहीं

है। मन जिनका मन्न नहीं कर सकता, जो मन और बानीसे

सर्वथा पे हैं; उन परमेध्यरकी स्तुति करनेम कौन समर्थ

होगा । छः अञ्गं, पद और क्रमसदित वेद जिनके निःश्वाससे

प्रकट हुए हैं; उन भगयान्‌ पिष्णुक्नी महान्‌ महिमाका यथावत्‌

ज्ञान फिनको हो सकता दै ? जिनफी मन बुद्धि सदा जाग्रतूँ

रहती हैं, वे सनकादि महर्षि अपने हृदयाकादामें मिनका

निरन्तर ध्यान करते रइनेपर भी उन्हें यथार्थरूफ्से उपलब्ध

नहीं कर प्ते, आशाल्त्रझ्मचारी नारद आदि मुनीश्वर जिनके

चरि सदा गाते रहते है, तो भी सम्पक्छूपले जिनके तत्वका

शाम नहीं हो पाता, जो चराचरस्वरूप होकर भी चराचर

जगतूसे सर्वथा भिन्न रै, जिनका स्वरूप अत्यन्त खूझम दै, जो

अजन्मा, अविकारी, एक, आदिकारण, बरह्मा आदिके

अगोचर, अजेय, अनस्तशक्ति; निरामय, नित्य, निराकार

पयं अचिस्त्प्वकूप हैं; उन आप परमेत्यरकों पूर्णरूफ्ले

# शरणं वज सर्येशं सत्युंजयमुमापतिम #

[ संक्षिप्त स्कन्दपुराण

कौन जान सकता है १ भगवन्‌, मुर, मुकुन्दः

मधुसूदन, माथष इत्पादि रूपये आपके एक-एक नामका

भी यदि जप किया जाय, तो यह पापियोंके जन्मभे

उपार्नित पापपुजकों उनकी महाविपत्तियोंके सांप हर छेता

है और बढ़े-बढ़े यशोंफा महत्तपूर्ण फल प्रदान करता है ।

नारयण) नरकार्णवतारणः दामोदर, मधुसूदनः चतुर्मु,

विश्यम्मर, निरज और जनादन इत्पादि ना्मोका जप

करनेयाके पुरुषोंका इस संसारमें कहाँ जन्म हो सकता दे तथा

उन्हें लका भय भी कदां प्राप्त हो सकता दै ७। जिविक्रम |

आपकी न्ति मेपमालाके समान सन्दर एवं ध्याम द । आप-

का श्रीसज्ग विद्युत्‌की भति प्रकाशमान पीताम्बरसे आदृत

है और आपके नेत्र कमलदलके समान परम सुन्दर हैं | जो

छोग आपकी इस छबिका अपने छुदयमें सदा चिन्तन फरते

हैं, वे भी आपकी अचिन्त्य शान्तिको प्रास रर झेते हैँ ।

भीवत्सचिद्धसे सुशोभित शीर ! अच्युत ! केंटमोरे !

शोविन्द ! गरुड़याइन ! केदाच ! कऋऋषाणे ! रुक्ष्मीपते !

देत्ययूदन ! शाङ्गपाणे ! आपके प्रति भक्ति रखनेथाके पुरुषों-

को कहीं मी भव नकी प्रा पेता । कमरनमन ! जिनकी

जिड़ापर आक मनोवान्छित फल देनेवाला नाम सोमा

पाता है। जिनके कानेमिं आपकी कथाके सुमधुर अक्षर पढ़ते

हैं था जिनके इदयरूपी भित्तिपर आपका खरूपं अङ्कित

होता है; उनके छिये राजका पद दुर्लभ नहीं है । प्रभो !

ब्रह्माजी आपके युगल चरणारबिन्दोंकी बन्दना करते हैं। आप

शस्ये ही अनेक प्रकारके लीरामय स्वरूप धारण करते हैं।

आप ही क्षणभरमें जगत्‌क्ी खष्टिः पाटन और संहार करते

हैं। आप ही विष्व है, आप ही विश्यसे परे विश्वनाथ हैं तथा

आप दी इस विश्वके बीज ( आदिकारण ) हैं, मै आपको

नित्य प्रणाम करता हूँ । भगकन्‌ | आप ही स्तुति करनेवाले

हैं, आप ही स्तुति हैं और आप ही लवन करनेयोम्य देयता

( *क७ पृ का० 3० ३० ; ३४.१५ है।

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