काशी खण्ज-उत्तरार्थ
ॐ घर्मनदृतीर्थके पञ्चनद् न/म पड़नेका कारण &
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याको मी छुनता है, वह फिर गर्भम नदौ आता । जहां खव
पातकोौका नाश फरनेवाटी दिवोदासकी कया होती है। वहाँ
अनाषृष्टि और अकाखमृध्युका भय नहीं होता | इस माहात्म्य-
कथाके पाठसे सवके मनोर पूर्ण दंगे ।
घमेनदतीर्थके पञ्चनद नाम पड़नेका कारण, अम्निविन्दुके द्वारा भगवान् विष्णुकी स्तुति,
मगवानके मुखसे पञ्चनद एवं विन्दुमाधवतीर्थकी महिमाका निरूपण
अगस्स्यजी बोके--पार्षतीनन्दन ! आपने यह का
है कि काशी परम पायन है, उसमें भी भगवान् विष्णुने
कनद ( प्चगक्घा ) तौर्धको पहुत उत्तम जाना। अतः
हम जानना चाहुते हैं कि उसका नाम पश्नदतीर् स्यो हुआ और
वह स्व तीयोंसे बढ़कर परम पावन क्योकर हुआ ! जो निराकार
होकर भी साकार हैं, रूपहीन होते हुए मी रूपवान् हैं, अव्यक्त
होकर भी व्यक्त हैं, प्रपञ्चते फे होकर भी प्रप्वतेवी
हैं, अज्म्मा होकर भी जिन्होंने अनेक जन्म धारण किये
[3 नामरहित होऋर भी स्पष्ट नाम धारण करनेवाले (
आलम्ब्य होकर भी सबके परम आम्य है, निर्गुण शोर
मीसगुणरूपसे प्रकट हैं और शन्धियरहित होद्धर भी इस्द्रियोंके
स्वामी हैं तथा भिना पैरके भी सर्वत्र गमन करनेवाले है
उन सर्वष्यापी भगान् जनादनके सर्वात्मभावसे परम उत्तम
पञ्चनदतीर्थमे निवास करनेका क्या कारण है !
सकत्द्जीने कहा--एक समय फाशीर्मि सूर्यदेवने की
भारी तपस्या की । उस तीर्थ तपस्या झरते हुए. मयूख्वादित्य
नामक् खूर्यकी किरणोंसे अहुत पसीना प्रकट हुआ । वह
महास्वेदकी धारा दिरणा नामसे प्रसिद्ध पुण्पमयी नदी बन
गयी । किर यह धूतपापा नदीसे मिली । धूतपापासे मिली हुई
किरणा खस्लानमात्रसे महापापरूपी घे।र अन्धकारका नाश कर
देती है । तदनन्तर दिलीपनन्दन भगीरथके साथ भागीरथी
गङ्गा यमुना और सरस्वतीके साथ यहाँ आयीं। इस धकार उस
तीर्थमें किरणा, धूतपापा, पुण्यसलिला सरस्वती, गङ्गा और
यमुना--ये पाँच नदियाँ मिली हुई क्तायी गयी ६।
इसीछिये कड त्रिभुवनविख्यात तीर्थ पञ्चनद ( पश्चगज्ञा )
के नामसे प्रसिद्ध है | उसमें डुबकी छगानेयरात्मा मनुप्य
पाक्चमोतिक शरीर नहीं ह्ण करता । पाँच नदियोंकां यह
सङ्गम समस्त पापरारिको ब्रिदीर्ण ऊरनेवात्म है । इसमें खान
करनेमाप्रसे मनुप्य नद्मा्डमण्डख्का भेदन करके
ङर्व॑तयेकस्ने चतम जाता रै । काशी फ्रा-फापर अनेक
बढ़े-य़े तीर्थ हैं, किंत मे पञ्चनदतीरथके फरोढ़वें
अंशके समान भी नहीं हैं। ए माघभर प्रयाग
तीर्षमें मणीमोति स्नान करनेसे जो फल मित्ता है, वह
काके पञ्चनदतीर्धमं एक ही दिनके स्नानसे निश्चय दी प्रास
हो जाता ह । पञ्चनदतीर्थमे स्नान और पितरोंका तर्पय फरके
भगवान् चिन्दुमाधब्धी पूजा करनेसे मनुष्य फिर इस छंसारमें
जन्म नहीं छेता। जिन्दोंने पंश्ननद नामक शुभ तीर्थमं भाद
किया है; उनके पितर अनेक योनियोंमें गये को तो भी मुक्त
हो जाते हैं । कलसे छने हुए पश्चगन्नाके पुण्यजछसे जो
अपने इश्देयक्ों समान कराता दै, वह महान् फलका भागी
होता है । संतोंकों महान् सुख देनेबाले पत्वनद तीर्थके जतत
अभिषेक जितना परिव है; उतना स्वर्गके राज्यपर यदि उनका
अभिषेक किया जाय; तो यह भी प्रिय नहीं है । सुत्ययुगमें
इस तीर्षका नाम धर्मनद्, भ्ेतामें धूतपाप, द्वापरमें विन््चुतीर्थ
और कलियुगमे पञ्चनद कशा गया है । पुण्यमय र्मनदती र्थमें
विधिपूर्यक अस्निक्रो प्रत्बल्तित रके वदि उसमें एक भी
आहुति दी आव, तो कोटि यार होमका फ मिस्ता है ।
पश्चनदतीर्थमें स्थित हुए, भगवान् लक्ष्मीफतिने गरुडको
झिक्जीके आगे सच जत्तान्त निवेदन करनेकै लिये मेजकर
अदा एक तुर्य झरीरवाले तफ्स्वीकों देखा | उस तपस्वी
मुनिने निकट आकर मगयान्का दर्शन फिया । भगवान् उल्मीपति
गम धारण की हुईं अनमास्मणे सुझोमित थे । उनके पास
ही भगवती छकष्मी विराजित धीं । चारो हाधोमिं कमः): शङ्ख,
पद्म, गदा और चक्र अमक रहे थे । वश्षःछल कौ स्तममणिकी
प्रमासि उद्धातित हो रहा था । उन्होने अपने भीअन्गमे
दिव्य रेशमी पीताम्बर धारण फर रखा था । उनकी अङ्ग
कान्ति सुन्दर नीर कमरे समान ध्याम थी । आकृति
अत्यन्त स्निग्ध एवं मधुर प्रतीत होती थी । नामिकुष्डमें
कमल शोभा पा रहा था । ओट बढ़े दी सुन्दर और खास ये,
दाँत अनारके दानोंके समान सुन्दर एवं स्वच्छ थे । उनके
किरीटकी थुतिसे भाकाश प्रकाशित दो रदा था, देबराज इन्द्र
जिनके चरणोंमें मस्तफ ष्ठते ई, शनक आदि महात्मा
जिनी स्थुति करते हैं; नारद आदि देवर्षियोंने जिनके महान्
अम्युदयका गीत गाया है तथा प्रक्धाद आदि भगवद्धक्त