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* अध्याय ३१७ *

६५३

बीजोंका पूर्वोक्त रीतिसे उद्धार करके फट्कारपर्यन्त | ही अन्तर्गत है। सकलके ही पूजन और अङ्गन्यास

सब अङ्गका न्यास करना चाहिये। अर्धचन्द्राकार

आसन दे। * भगवान्‌ पशुपति कामपूरक देवता हैं

तथा सर्पोंसे विभूषित हैं।' इस प्रकार ध्यान करके

महापाशुपतास्त्र मन्त्रका जप करे। यह समस्त

शत्रुओंका मर्दन करनेवाला है। यह “सकल

(कलासहित) प्रासाद-मन्त्र 'का वर्णन किया गया।

अब “निष्कल-मन्त्र' कहा जाता है ॥ ९--१९॥

ओषध (ओ), विश्वरूप (ह ), ग्यारहवीं

मात्रा, सूर्यमण्डल (अनुस्वार) इनसे युक्त अर्धचन्द्र

(अनुनासिक) एवं नादसे युक्त जो 'हाँ' मन्त्र है।

यह "निष्कल प्रासाद-मन्तर' है; इसे सं्ञाविहीन

"कुटिल ' भी कहते है । "निष्कल प्रासाद-मन्त्र'

भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला है । सदाशिवस्वरूप

“प्रासाद-मन्त्र' ईशानादि पाँच ब्रह्ममूर्तियोंसे युक्त

होता है; अतः वह "पञ्चाङ्ग" या ' साङ्ग" कहा

गया है'। अंशुमान्‌ (अनुस्वार), विश्वरूप (ह )

तथा अमृत (अ) -इन तीनोंके योगसे व्यक्त

हुआ "हं ' बीज “शून्य ' नामसे अभिहित होता है ।

(यह "हिं हुं हें हों '-- इन सबका उपलक्षण है ।)

ईशान आदि ब्रह्मात्मक अङ्गो (मुखो ) -से रहित

होनेपर ही उसकी शून्य संज्ञा होती है । ईशानादि

मूर्तियां इन बीजोंके अमृततर हैं। इनका पूजन

समस्त वि्नोका नाश करनेवाला है ॥ २०-२२॥

अंशुमान्‌ (अनुस्वार) युक्त विश्वरूप (ह)

यदि ऊहक ( ऊ )-के ऊपर अधिष्ठित हो तो वह

“हूं” बीज 'कलाढ्य' कहा गया है । वह " सकल 'के

आदि सदा होते हैँ । (इसी तरह जो “शून्य” कहा

गया है, वह ' निष्कल।के ही अन्तर्गत है।)

नरसिंह यमराजके ऊपर बैठे हों, अर्थात्‌ क्षकार

मकारके ऊपर चढ़ा हो, साथ ही तेजस्वी (र)

तथा प्राण (य)-का भी योग हो, फिर ऊपर

अंशुमान्‌ (अनुस्वार) हो तथा नीचे ऊहक (दीर्ध

ऊकार) हो तो "क्षयं '- यह बीज उद्धृत होता

है। इसकी 'समलंकृत' संज्ञा है । यह ऊपर और

नीचे भी मात्रासे अलंकृत होनेके कारण 'समलंकृत'

कहा गया है। यह भी “प्रासादपर” नामक मन्त्रका

एक भेद है। चद्धार्धाकार बिन्दु और नादसे युक्त

ब्रह्मा एवं विष्णुके नामोंसे विभूषित क्रमश: उदधि

(व) और नरसिंह (क्ष)-कों बारह मात्राओंसे

भेदित करे। ऐसा करनेपर पूर्ववत्‌ हस्वस्वरोंसे

युक्त बीज ईशानादि ब्रह्मात्मक अङ्ग होंगे तथा

दीर्घस्वरोंसे युक्त बीजसहित मन्त्र हृदयादि अङ्गो

विन्यस्त किये जायँगे'॥ २३--२५ ३ ॥

अब दस बीजरूप प्रणव बताये जाते हैं--

ओजको अनुस्वारसे युक्त करके 'ओम्‌' इस प्रथम

वर्णका उद्धार करे। अंशुमान्‌ और अंशुका योग

*आं ' यह नायकस्वरूप द्वितीय वर्ण है। अंशुमान्‌

और ईश्वर--'ईं'--यह तृतीय वर्ण है, जो मुक्ति

प्रदान करनेवाला है। अंशु ( अनुस्वार)-से आक्रान्त

ऊहक अर्थात्‌ '३७' यह चतुर्थ वर्ण है। सानुस्वार

वरुण (व्‌), प्राण (य्‌) और तेजस्‌ (२)--अर्थात्‌

“ज्यूं' इसे पञ्चम बीजाक्षर बताया गया है।

१. ' श्रीविध्ार्णवतन्त्र ' में महापाशुपतास्त-मन्त्र इस प्रकार उद्धृत किया गया है--' ॐ सलीं इसकलहां पशुहुसकलहाँ हूँ सकल

हीं फट्‌।

२. सारङ्ग मन्त्रके बीज हस्व स्वरॉसे भेदित होते हैं। न्यास तथा पूजत्रके लिये उनका स्वरूप यों समझता चाहिये ~" हों ईशानायोध्वंचक्‍्आय

नम: । हैं तत्पुरुषाय पूर्ववक्त्राय नम: । हुँ अघोगय दक्षिणवक्त्राय नम: । हि. वामदेवाय उत्तरकककाय नम: । हं सद्योजाताय पश्चिमवक्आय नम: ।'

३. यथा-यो ब्रह्मणे क्षों विष्णवे ईशानाय नमः । वें ब्रह्मने शँ विष्णवे तत्पुरुषाय जमः । हुं ब्रह्मने श्चं विष्णवे अपोराय नमः । विं

अयणे क्षिं विष्णये कामदेवाय नमः । चं ब्रह्मणे क्षं विष्णवे सद्योजाताय वमः। ये पूजत्रके मन्त्र है । अ्गन्यास ~ वां ब्रह्मणे कषां विष्णवे

हृदयाय नमः । यौ ब्रह्मणे क्ष विष्णवे शिरसे स्वाहा । यूं ब्रह्मते शूं विष्णवे शिखायै वषट्‌ । व ब्रह्मणे क्षं विष्णवे कवचाय हुम्‌ । याँ ब्रह्मणे क्षौ

चिच्णयै नेत्रत्रयाय यौपट्‌। वः ब्रह्मणे श्च: विष्णवे अस्त्राय फट्‌ ।

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