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४७७ # शरणं ज्र सर्वेशां सत्युंजयमुमापतिम्‌ # [ संधिस स्कन्दपुराण

पुनः यदीं भेज दिया |? यह सुनकर भगवाम्‌ चूर्यने समाधिम कष्ण पकी पूर्णिमा, अमावास्या एवं चतुर्दशीको जो पूर्यकुष्ड-

स्ति होर देखा कि संज्ञा पोड़ीका रूप धारण करके उत्तर

कुर्म तपल्या कर रही हैं । उन्होंने ध्यानके द्वारा यह भी

समझ स्ता क्वि तेजसे असह्ा होनेके कारण बह मेरी ओर

देखनेमें समर्थ न षे सड़ी । आज पचास वर्ष व्यतीत हो

गये । उसने एप्थीपर जारूर तपस्या की दै । सब भगयान्‌ सूर्य

शीमतापूर्यफ संशाके पा गये । उस समय वे धर्मारष्य-

प्रकट हुए । उनके दादिने शुर एष्वी विदीर्ण हो जाने कारण

कृं एक कुण्ड बन गया और उसमें जर प्रकट हो गया।

इसी प्रकार पिके चरि भी एफ दूसरा कुण्ड बन गया |

उसमें स्नान करनेसे मनुष्य सब पापेति मुक्त हो जाता है

ओर उसका शरीर कोढ़ आदि रोति पीड़ित नहीं होता । राजन्‌!

इस प्रछार तुमसे अश्विनीकुमारों ही उत्पक्िक्र शृततान्त बतलाया |

देवताओंने ब भगवान्‌ सूर्यकों वकुछयनके स्वामीके रूपमें

स्थापित क्रिया । साथ ही यहाँ संशारानी और दोर्नों

अध्नीकुमारोंडी भी स्थापना की गयी । जो मनुष्य इस्ट्रियों-

को संयमे रख अद्भापूर्यक सूर्वकुष्डमें स्नान करता दै,

कद महानरकर्मे पढ़े हुए पितरोंका भी उद्धार कर देता है ।

नो अद्धापूर्यक देवताओं और पित्ता तर्पण करके उस कुण्डका

ज पीता दै, उसका पुष्प छोटिगुना होता है; रविवास्य॒ुक्त

ससमीमें तया चन्द्रग्रदण और सूर्यग्रदणके समप जो दूर्व.

कुष्डमें स्वान करते हैं, ये फिर गर्भम नदीं जाते । संक्रान्ति,

व्यतीपात और वैधृत्ति योगमें, वके अचसरपर, शग ओर

में स्नान करता है; उसे कोटि यज्ञोंका फर प्राप्त दोता रे ।

जो मनुष्य एकचित्त होकर बकुलादित्यक्रा पूजन करता

है, बह जबतक सूर्यदेब तपते हैं त्रतक परम धाममें निवास

करता है । उसे फमी टका भय नहीं होता । भूत और

प्रेत आदिकी बाघा भी नहीं प्राप्त होती । जो मनुष्य रेग-

अस्त हो यह सूर्वकुण्डमें छः महीनेक्छ स्नान करनेसे समी

रोगि मुक्त हो जाता है। युधिष्ठिर! जो मनुष्य इस धर्मारष्व-

शेजमे कन्यादान करता दै, बह उस वियाहयशसे पवित्रचित्त

होकर बद्मशोश्मे पूजित हेता है । इस केत्रमै गोदान,

शम्यादान, भूमा, पोका, दासी, मश, तिक एवं सुवर्णा

दान करना चाहिये । रिवाणयुक्त ससमी तियिमे जो

अकुद्यदित्यक्रा स्मरण करता है; उसे श्वर आदि रोगे श्रो

तथा व्याधियोंसे भय नहीं प्राप्त होत्र ।

युधिष्ठिरजीने पूछा--मुने ! चरो भगवान्‌ सुयश

घकुलार्क अथवा वकुल्यदित्य नाम केसे पढ़ा १

व्यासजी बोके-राजैन्द्र ! जब॒संशारानीने भगवान्‌

खूर्यकी प्राप्ति तथा उनके तेजकी शान्तिके लिये एककित्त

होकर वकुल ब्रक्षके नीचे तपस्या की, उस समय उस शर्क

[म णि

इन्द्रेश्वकी स्थापना और उनकी महिमा, देवमज्जनक तड़ागका माहात्म्य तथा लोहासुरके

अत्याचारसे धर्मारण्यकी जनताका पलायन

"9

ब्यासजी कते ह- भार ! धर्मारण्यपुरते उत्तर

दिशामें देवराज स्दने भगवान्‌ श्रो प्रसन्न करनेके लिये

तीन शौ वपव आन्त दुष्डर तप किया । शरतरमुरके

यते जो पाप खगा था, उसझो दूर फरनेके लिये ही इन्द्र

जितेन्द्रिय एवं एाप्रजिन होकर भगवान्‌ शङ्करकी आराधना-

मे छे ये । उस समय भगवान्‌ चन्द्रशेलर उनकी तपस्पासे

बहुत प्रसन्न हुए. और उनके समीप आकर बोछे--“देवराज !

तुम जो कुछ माँगते हो, उसे मैं दूँगा ।”

इन्द्रने कद्धा-देवेश्वर ! शगतिन्ध म्र ! यदि

आए मुझपर प्रतनन्न हैं तो इृपरातुरके मनसे जो पप रूगा

कै; उखा नादा कीजिये ।

भगवान्‌ शिवने क्ठा-देवयन ! पर्मरभ्बमे

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