है। इन दोनों व्यूहोंमेंसे किसीके भी मध्यभागमें
हाथी और घोड़े आदि आवाप मिला दिये
जायं तो वह “परिपतन्तिक' नामक व्यूह होता
है ॥ ५५-५६ २ ॥
मण्डल-व्यृहके दो ही भेद हैं--सर्वतोभद्र तथा
दुर्जय । जिस मण्डलाकार व्यूहका सब ओर मुख
हो, उसे 'सर्वतोभद्र' कहा गया है। इसमें पाँच
अनीक सेना होती है। इसीमें आवश्यकतावश
उरस्य तथा दोनों कक्षोंमें एक-एक अनीक बढ़ा
देनेपर आठ अनीकका 'दुर्जय” नामक व्यूह बन
जाता है। अर्धचन्द्र, उद्धान तथा वञ्-ये ' असंहत "के
भेद हैं। इसी तरह कर्कटशृङ्गी, काकपादौ और
गोधिका भी असंहतके ही भेद हैं। अर्धचन्द्र तथा
कर्कटशृङ्गी -ये तीन अनीकोके व्यूह हैं, उद्धान
और काकपादी -ये चार अनीक सेनाओंसि बननेवाले
व्यूह हैं तथा वज्र एवं गोधिका-ये दो व्यूह
पाँच अनीक सेनाओकि संघटनसे सिद्ध होते हैं।
अनीककी दृष्टिसे तोन हो भेद होनेपर भी
आकृतिमें भेद होनेके कारण ये छः बताये गये हैं।
दण्डसे सम्बन्ध रखनेवाले १७, मण्डलके २,
असंहतके ६ और भोगके समराड्गरणमें ५ भेद कहे
गये हैं ॥ ५७-६० ॥
पक्ष आदि अड्डॉमेंस किसी एक अड्भगकी
सेनाद्रारा शत्रुके व्यूहका भेदन करके शेष अनीकॉद्वारा
उसे घेर ले अथवा उरस्यगत अनीकसे शत्रुके
व्यूहपर आघात करके दोनों कोटियों (प्रपक्षों)-
द्वारा घेरे। शत्रुसेनाकी दोनों कोटियों (प्रपक्षो )-
पर अपने व्यूहके पक्षोद्रारा आक्रमण करके
शत्रुके जघन (प्रोरस्थ) भागको अपने प्रतिग्रह
तथा दोनों कोरि्यो्रारा नष्ट करे। साथ हौ,
उर्स्यगत सेनाद्वारा शत्रुपक्षकों पीड़ा दे। व्यूहके
जिस भागमें सारहीन सैनिक हों, जहाँ सेनामें
फूट या दरार पड़ गयी हो तथा जिस भागमें
दृष्य (क्रुद्ध, लुब्ध आदि) सैनिक विद्यमान हों,
[१ अग्निपुराण क्र
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वहीं - वहीं शत्रुसैनाका संहार करे ओर अपने
पक्षके वैसे स्थानोको सबल बनाये। बलिष्ठ
सेनाको उससे भी अत्यन्त बलिष्ठ॒सेनाद्वारा
पीड़ित करे। निर्बल सैन्यदलको सबल सैन्यद्रारा
दबाये । यदि शत्रुसेना संघटितभावसे स्थित हो तो
प्रचण्ड गजसेनाद्रारा उस शत्नुवाहिनीका विदारण
केरे ॥ ६१--६४ ॥
पक्ष, कक्ष ओर उरस्य -ये सम स्थितिमें
वर्तमान हों तो “दण्डव्यूह' होता है। दण्डका
प्रयोग और स्थान व्यूहके चतुर्थ अड्भद्भारा प्रदर्शित
करें। दण्डके समान ही दोनों पक्ष यदि आगेकी
ओर निकले हों तो “प्रदर' या “प्रदारक' व्यूह
बनता है। वही यदि पक्ष-कक्षद्वारा अतिक्रान्त
(आगेकी ओर निकला) हो तो “दृढ़' नामक
व्यूह होता है। यदि दोनों पक्षमात्र आगेकी ओर
निकले हों तो बह व्यूह 'असद्य” नाम धारण
करता है। कक्ष और पक्षको नीचे स्थापित करके
उरस्यद्वारा निर्गत व्यूह “चाप” कहलाता है। दो
दण्ड मिलकर एक “वलय-दव्यूह' बनाते हैं। यह
व्यूह शत्रुकों विदीर्ण करनेवाला होता है। चार
वलय-व्यृहोके योगसे एक ' दुर्जय" व्यूह बनता
है, जो शत्रुवाहिनीका मर्दन करनेवाला होता है।
कक्ष, पक्ष तथा उरस्य जब विषमभावसे स्थित हों
तो * भोग" नामक व्यूह होता है। इसके पाँच भेद
है- सर्पचारी, गोमूत्रिका, शकट, मकर ओर
परिपतन्तिक । सर्प-संचरणकी आकृतिसे सर्पचारी,
गोमूत्रके आकारसे गोमूत्रिका, शकटकी-सी आकृतिसे
शकट तथा इसके विपरीत स्थितिसे मकर-व्यूहका
सम्पादन होता है। यह भेदोंसहित 'भोग-व्यूह'
सम्पूर्ण शत्रुओंका मर्दन करनेवाला है । चक्रव्यूह
तथा पद्मव्यूह आदि मण्डलके भेद-प्रभेद है । इसी
प्रकार सर्वतोभद्र, वज्ज, अक्षवर्, काक, अर्धचन्द्र,
शृङ्गार ओर अचल आदि व्यूह भी हैं। इनकी
आकृतिके ही अनुसार ये नाम रखे गये हैं। अपनी