खूतजी कहते हैं--सीताकुष्डसे वायल्य कोशर्मे
क्षीरोदक नामक तीर्थ दै, ओ सब वुःस्पोंका नाश करनेवाला
है। पूर्वकालमें राजा दशरथने यहीं पुत्रके छिये पुत्रेष्टि नामक
यञ किया था । वशके अन्तमं वां भगदान् अप्रिदेव अपने
हायमें दविष्यसे मरा हुआ छोनेका पात्र लिये इष्टिगोचर हुए
ये | 36 हथिष्यमें परम उत्तम बिष्णुतेज व्यास या । राजाने
उसके नार भाग करके अपनी पक्षियोंकरों बट दिया । जह
उस क्षीर ( खीर या विष्य ) की प्राति हुई, वहीं क्षीरोदक
नामयालत्य तीर्थ प्रसिद्ध हुआ । नितेन्द्रिय पुरुष उस तीर्थमे
आदरपूर्वक खान करके सम्पूर्ण भोगो और बहुश पुन्नोंको
शरास करता है । आशिन शुक्ला एकादशीकों अतका पालन
करनेवाअ पुरुष बड़ों विधिपूर्वक कने करफे आहाणकों
ययाश्नक्ति दान दे । इससे यह सम्पूर्ण मनोरथोंकों प्रात कर
तेता दे । उस क्षीरोदक सान नेऋत्यकोणमें बृदस्पतिका
कुण्ड परसिद्ध दै । कह सब पार्पोका नाशक तथा पविश्र जलकी
तेश््ोषे भुशोभित रै, जहाँ शाक्षात् इृदस्यतिजीने निवास
किया है । कह तीयं सघन पक्तोड़ी छायासे सुशोभित एं
नाना प्रकारके फल देनेवात्म है । पापियोके लिये बह दुलभ
है। भादोंके शुक्ल पक्षकी पञ्चमी तिथिम वहाँकी यात्रा फल-
दायिनी होती है। अन्य समयमे भी वृहस्पतिके दिन उसमें
किपा हुआ क्षान यहुत शलदायक है। ओ मनुष्य वहाँ
भबान् विष्यु तथा ब्रृइस्पतिका पूजन करता रै, बह सब
पापोखे मुक्त हो वेकुष्ठधाममें आनन्दका अनुभव करता है।
उफ दक्षिण भागमें परम उत्तम रब््मिणीकुण्ड दै,
जिसे औकृष्णकी प्रियतमा महारानी रुक्मिणी देवीने स्वयं
निर्माण कराया था । उस कमय भगवान् विष्णुनें खयं ही उस
कुण्डके जले निधास किया । पक्षीके स्नेहसे बर् देकर
भगकान्ले उस कुण्डके महत््वकों और बढ़ा दिया है । मनुष्य-
को चाहिये कि वह .नन और इन्द्रियो करो ठंवमर्म रखकर वहाँ
ज्ञान, दान) बे"गयमन्तसे द्ोम, आंक्षणपूजन तपा भगवान्
विध्णुका अर्चन को । कार्तिक कृष्णा नवमीको कहाँकी वार्षिक
यात्रा करनी चादिये । इससे सब पापोक्र नाश होता है।
यात्रा करनबात्म मनुप्य दविमणी भीर भीङृष्यकी प्रीतिके
लिये अपनी शक्तिके अगुसार दान दे । वहाँ शङ्क, चक्र;
गदा एवं पद्म धारण करनेवाले भगवान लक्ष्मीपक्तिका इस
प्रकार ध्यान करना ऋिये --भगवान्के भ्रीअक्लोमें पीताम्बर
शोमा पा रहा है। बे वनमासा पहने हुए. हैं और नारद आदि
षि उनकी स्तुति करते र । मल्तकपर मुकुट शोभा पा रहा
है तथा बे इन्द्रनीकमणि आदि दिव्य रक्तक आभूषणोंसे
विभूषित हैं । वक्षःख्लमें कौस्तुममणि प्रकाशित हो रही है,
जो समल कामनाओं एमं फलकी प्राति करानेवाली है।
मगयानफ़ी अ्गकान्ति अंछसीके फूलकी भोति श्याम है।
उनके नेत्र कमछदलके समान परम सुन्दर ६ । इस प्रकार
ध्यान करनेपर मनुष्य निःहन््देह सम्पूर्ण मनोरणोंको पा ठेवा
टै ओर इदकोकर्ं श्ल भोगकर भगवान्के छोकमें आनन्दका
अनुभव करता है ।
इक्मिणीकुण्डके यायब्य कोजमे “घनयक्ष” नामे
प्रसिद्ध उत्तम तीर्थ है । पूर्य काकी बात है विश्वामित्र मुनिने
राजसूय यश करनेवाले राजा दरिश्रन्द्रसे ( दानमे ) सारा राज्य
के लिया । तत्पश्रात् यह शब राज्य और घन एक यक्षके
संरक्षणमें दे दिया । किसी समय परपर बुद्धिमान् विश्वामित्र
मुनि उस यक्षपर प्रसन्न हुए. और बोले--“यक्ष | यह तीथं
ध्यनयक्ष” के नाभसे प्रसिद्ध होगा । यहां नवो निधियोंका पूजन
करनेसे मनुष्य इदलोकमें सुख और परलोकमें आनन्दका
अनुभव करता है। महापद्म, पञ्च, शङ्क, मकर, कच्छपः
मुकुन्द, कुन्द, नीर ओर खर्ब--ये नो निधियों र% । इन
छबका इस कुण्डमें निवास होगा । यहाँ जलम निधि-रूस्मीका
पूजन करना चाहिये | माघ कृष्णा चतुदशीको यहोंकी वार्षिक
यात्रा होनी चाहिये | उस स्मय ज्ञान और पितृतर्पण विष
रूपसे करने चाहिये |”
धनयसतीर्थसे उत्तर दिशामें वरिषकुण्ड नामक
निर्यात तीर्थ है; जो सदा सड पापोका नाश करनेवाला है ।
बह तपोनिधि बलि. और निर्मल बतवाली अदन्धतीजीका
नित्य निकास है | उसमें आलस्य छोड़कर जो बुद्धिमान् पुरुष
स्नान और विशेषरूपसे भद्ध करता है, उसे उत्तम पुष्यकी
भाति होती है। यहाँ बरिष्ठ और बामदेवभीका यरनपूर्यक
पूजन करना चाहिये ।.पतिब्रता अशन्धती देवी बं िशेषरूप-
से पूजनीय ६। उस तीर्थमें विधिपूर्षफ स्नान और यथा-
झक्ति दान करना चाहिये।जो उसमें स्नान करता दै, बह
# मदापदस्तथा पदः शङ्खो मकरकआयो।
मुकुन्दकृन्दनीत्मश्च श्च निधयो जब ॥
( स्क७ परु० वै #्० पार $। ५१ )