उत्तरपर्व ]
* मरणासन्न (पृत्युके पूर्व) प्राणीके कर्तव्य तथा ध्यानके चतुर्विध भेद *
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चन्र्रहणसे उत्पन्न हुई पीडाका विनादा करें।
“जो (नव) निधियोंकि' स्वामी तथा खड्ग, त्रि और
गदा धारण करनेवाले हैं, ये कुबेरदेव चन्द्र-ग्रहणसे उत्पन्न
होनेवाले मेरे पापको नष्ट करें। जिनका लल्प्रट चन्द्रमासे
सुरभित है, वृषभ जिनका वाहन है, जो पिनाक नामक धनुष
(या त्रिशूलको) धारण करनेवाले हैं, वे देवाधिदेव दौकर् मेरी
चन्द्र-ग्रहणजन्य पीडाका विनाश कर । ब्रह्मा, विष्णु और
सूर्यसहित त्रिलोकीमें जितने स्थावर-जङ्गम प्राणी हैं, वे सभी
मेरे (चन्रजन्य) पापक भस्म कर दें ।' इस प्रकार देवताओंको
आमन्नित कर व्रती ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदके मन्त्रोंकी
घ्वनिके साथ-साथ उन उपकरणयुक्त कलझोॉंके जलसे स्वयै
अभिषेक करे। फिर शेत पुष्पोंकी माला, चन्दन, यस और
गोदानद्वारा उन ब्राह्मणोंकी तथा इष्ट देवताओंकी पूजा करे ।
तत्पल्चात् वे द्विजवर उन्हीं मन्त्रोंको वस््र-पट्ट अथवा
कमलदलपर अङ्कित करें फिर द्रव्ययुक्त उन कलक
यजमानके सिरपर रख दें। उस समय यजमान पूर्वाभिमुख हो
अपने इष्टदेक्की पूजा कर उन्हें नमस्कार करते हुए.
अहण-कालकी वेल्त्रको व्यतीत करे। चन्द्र-ग्रहणके निवृत्त हो
जानेपर माङ्गलिक कार्य कर गोदान करे और उस (मन्त्रद्वारा
अङ्कित) पट्टको खानादिसे झुद्ध हुए आर्यको दान कर दे ।
जो मानय इस उपर्युक्त विधिके अनुसार ग्रहणका खान
करता है, उसे न तो ग्रहणजन्य पीडा होती है और न उसके
वन्धुजनोक् विनाझ् ही होता है, अपितु उसे पुनरागमनररहित
परम सिद्धि प्राप्त हो जाती है। सूर्य-ग्रहणमें मन्त्रम सदा
सूर्यक्र नाम उचारण करना चाहिये। इसके अतिरिक्त
चन्द्र-ग्रहण एवं सूर्य-ग्रहण--दोनों अवसरॉपर सूर्यके निमित्त
पदाराग मणि और निश्ञापति चद्रमाके निमित्त एक सुन्दर
कपिला गौका दान करनेका विधान है। जो मनुष्य इस
(ग्रहण-खनानकी विधि) को नित्य सुनता आधवः दूसरेको
श्रवण कराता है, वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त होकर इन्द्रमेके
प्रतिष्ठित होता है।
(अध्याय १२५)
मरणासन्न (मृत्युके पूर्व) प्राणीके कर्तव्य तथा ध्यानके चतुर्धिध भेद
राजा युथिष्ठिर्ने पूछा--भगवन् ! गृहस्य व्यक्तिको
अपने अन्त समयमे क्या करना चाहिये । कृपाकर इस विधिको
आप बताये । मुझे यह सुननेकौ बहुत ही अभिलाषा है ।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले-- महाराज ! जब मनुष्यको
यह ज्ञात हो ऋय कि उसका अन्त समीप आ गया है तो उसे
गरुडध्वज भगवान् विष्णुका स्मरण करना चाहिये । सान करके
पवित्र हो शुद्ध शेत वख धारण कर अनेक प्रकारके पुष्पादि
उपचारोंसे नारायणकी पूजा एव॑ स्तोत्रोंद्रारा उनकी स्तुति करे ।
अपनी शक्तिके अनुसार गाय, भूमि, सुवर्ण, वस आदिकः दान
करे ओर बन्धु, पुत्र, मित्र, स्त्री, क्षेत्र, धन, धान्य तथा पशु
आदिसे चित्तको हटाकर ममत्वका परित्याग कर दे । मित्र,
दारु, उदासीन अपने और पराये स्परेगोकि उपकार और
अपकारके विषयमे विचार न करे अर्थात् शान्त हो जाय ।
प्रयन्नपूर्वक सभौ शुभ एवं अशुभ कर्मोंका परित्याग कर इन
इलोकॉका स्मरण करें--“मैंने समस्त भोगो एवं मित्रोंका
परित्याग कर दिया, भोजन भी छोड़ दिया तथा अनुलेपन,
माला, आभूषण, गीत, दान, आसन, हवन आदि क्रियाएँ,
पदार्थ, नित्य-नैमित्तिक और काम्य सभी क्रियाओंका उत्सर्जन
कर दिया है। श्राद्धधर्मोका भी मैंने परित्याग कर दिया है,
आश्रमधर्मं और वर्णधर्म भी मैंने छोड़ दिये हैं। जबतक मेरे
हाथ-पैर चल रहे है, तबतक मैं स्वयं अपना कार्य कर ढूगा,
मुझसे सभी निर्भय रहें, कोई भी पाप कर्म न करे । आकाश,
फसल, वख, शायन तथा आसनों आदिमे जो कोई प्राणी
पुराणौ तथा मह्यभारतादिषे निधिपति यक्षतज कुबेरके सदा नौ निधियोकि साथ ही प्रकट होनेकी बात मिलती है । पद्य, सहापदा, झेल, मकर,
कच्छप, मुकुन्द, कुन्द, नीक और कर्च--ये नौ निधिगण हैं।
२-इसी तरहकी जते गहडपुराण, भागवत १। १९ । ३७-३८ आदिमे महाराज परीक्षितद्रात महर्षि शुक्रदेवजीं आदिसे पूछी गयी हैं तथा
अनुष्यके जीवनक कब अन्त हो जाय, यह नहीं कहा जा सकता। अतः सदा ही ध्यानपूर्वक भगवान्का स्म्ण-भजन करते रहता चाहिये, यही
सबका सारदा है।