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४० ऋग्वेद संहिता भाग - २

सूर्य, इन्द्रदेव द्वारा प्रेरित ओर गमन के लिए निश्चित दिशाओं का हौ अनुसरण करते हैं । वे जव अधी द्वारा

गमन पथ पूरा कर लेते हैं, तभी अश्च को मुक्त करते है । यह भी इन्द्रदेव के लिए हौ करते हैं ॥१२ ॥

२७०६, दिदृक्षन्त उषसो यामन्नक्तोर्विवस्वत्या महि चित्रमनीकम्‌ ।

विश्वे जानन्ति महिना यदागादिद्धस्य कर्म सुकृता पुरूणि ॥१३ ॥

रात्रि को समाप्त करतो हुई उषा के उदित होने पर, सभी मनुष्य उन महान्‌ और विचित्र सूर्यदेव के तेज के

दर्शन की इच्छा करते हैं जब उषा आगमन करती है, तब लोग इन््रदेव के कल्याणकारी यज्ञादि महान्‌ कर्मों को

करना अपना कर्तव्य समझते है ॥१३ ॥

२७०७. महि ज्योतिर्निहितं वक्षणास्वामा पक्वं चरति बिभ्रती गौः ।

विश्च स्वाद्म सम्भृतमुलियायां यत्सीमिन्दरो अदथाद्धोजनाय ॥ १४ ॥

इनद्रदेव ने जल-प्रवाहों मे महान्‌ तेज को स्थापित किया है । उन्होंने जल से अधिक स्वादिष्ट दूध, घृतादि

भोजन के लिए गौओं में स्थापित किया है । नव प्रसूता गाव दूध धारण करती हुई विचरण करती है ॥१४ ॥

२७०८. इन्द्र दृह्य यामकोशा अभूवन्यज्ञाय शिक्ष गृणते सखिभ्यः ।

दुर्मायबो दुरेवा मर्त्यासो निषड्रिणो रिपवो हन्त्वासः ॥१५ ॥

हे इन्द्रदेव !आप दृढ़ हों, क्योकि शत्रुओं ते अवरोध उत्पन्न किया है आप यज्ञ और स्तुति करने वाले मित्रों

को वाउिछत मार्ग में प्रेरित करें ।शख््रादि प्रहारक कुमार्गगामी, बाणादि धारक शत्रु आपके द्वारा मारने योग्य हैं ॥१५ ।

२७०९. सं घोषः शृण्वेऽवमेरमित्रर्जही न्येष्वशनिं तपिष्ठाम्‌।

वृश्चेमधस्ताद्वि रुजा सहस्व जहि रक्षो मघवन्‌ रन्धयस्व ॥१६ ॥

हे इद्धदेव ! समोपस्थ शत्रुओं द्वारा छोड़े गये आयुधों का शब्द सुनाई देता है । संताप देने वाले आयुधो

द्वारा आप उन शत्रुओं को विनष्ट करें; उन्हें समूल नष्ट करें । गाक्षसों को प्रताड़ित कर, पराभूत करें और उनका वध

करके यज्ञ में प्रवृत्त हों ॥१६ ॥

२७१०. उद्वृह रक्षः सहमूलमिन्द्र वृश्चा मध्यं प्रत्यग्रं शृणीहि ।

आ कीवतः सललूकं चकर्थ ब्रह्धिषे तपुषिं हेतिमस्य ॥९७ ॥

हे इन्द्रदेव ! आप राक्षसो का समृल उच्छेदन करें । उनके मध्य भाग का छेदन करें । उनके अग्रभाग को नष्ट

करें । लोभी राक्षसो को दूर करें । श्रेष्ठ ज्ञान-कर्म से ट्रेष करने वालों पर भीषण अख़ों का प्रहार करें ॥१७ ॥

२७११. स्वस्तये वाजिभिश्च प्रणेतः सं यन्महीरिष आसत्सि पूर्वी: ।

रायो वन्तारो बृहतः स्यामास्य अस्तु भग इन्द्र प्रजावान्‌ ९८ ॥

हे जगत्‌-नियामक इन्धदेव ! हमें कल्याण के लिए अवो से युक्त करें जव आप हमारे निकट हो, तब हम

विपुल अन्न और प्रभूत धनों के स्वामी हों । हमें पुत्र-पौत्रादि से युक्त ऐश्वर्य की प्राप्ति हो ॥१८ ॥

२७१२. आ नो भर भगमिन्द्र दयुमन्तं नि ते देष्णस्य धीमहि प्ररेके ।

ऊर्वडुव पप्रथे कामो अस्मे तमा पृण वसुपते वसूनाम्‌ ॥१९॥

हे इन्धदेव ! आप हमें तेजस्विता- सम्पन्न ऐश्वर्य से अभिपूरित करे । आप दानशील है । हम आपके दान को

धारण करने वाले हों हमारी कामनाएँ बड़वानल के सदृश प्रवद्ध हुई हैं । हे धनं में श्रेष्ठ धन के स्त्रामी इन्द्रदेव !

आप हमारी कामनाओं को पूर्ण करें ॥१९ ॥

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