२ ऋग्वेद संहिता भाग - २
है। ये तरुण, विद्वान्, अति निष्ठावान्, सत्यस्वरूप और धारण करने योग्य अग्निदेव, मनुष्यो के मध्य
परदीप्त होते हैं ॥६ ॥
३६४८. प्र णु त्यं विप्रमध्वरेषु साधुमग्निं होतारमीछते नमोभि: ।
आ यस्ततान रोदसी ऋतेन नित्यं घृजन्ति वाजिनं धृतेन ॥७ ॥
ये अग्निदेव अपनी सापर्् से द्यावा-पृथिवी को परिपूर्णं करते हैं । यजमान उन ज्ञानी, यज्ञ कार्य सिद्ध करने
वाले, "होता ' रूप अग्निदेव का स्तोत्र से स्तवन करते हैं । यजमान अन्न के स्वामी अग्निदेव का धृत-आहूतियों
द्वारा नित्य यजन करते हैं ॥७ ॥
३६४९. मार्जाल्यो मृज्यते स्वे दमूनाः कविप्रशस्तो अतिथि: शिवो नः।
सहस्रशृङ्गो वृषभस्तदोजा विश्चौँ अग्ने सहसा प्रास्यन्यान् ॥८ ॥
सबको पवित्र करने वाले, विकारों का शमन करने वाले, ज्ञानियों द्वारा प्रशंसित, अतिथि सदृश पूजनीय, हम
सबका कल्याण करने वाले ओजस्वी ये अग्निदेव अपने स्थान पर पूजे जाते हैं । हे अग्ने आप अपनी सामर्थ्य
से सबको पूर्ण करते हैं ॥८ ॥
३६५०. प्र सद्यो अम्ने अत्येष्यन्यानाविर्यस्मै चारुतमो बभूथ ।
ईखेन्यो वपुष्यो विभावा प्रियो विशामतिथिर्मानुषीणाम्॥९ ॥
है अग्ने! आप यज्ञ में उत्पन्न सुन्दर रूप में प्रकट होते हैं। आप शीघ्र ही अन्यों को पार
कर आगे बढ़ते हैं। आप मनुष्यों में अत्यन्त स्तुत्य, सुन्दर रूपवान्, प्रकाशवान् और प्रिय हैं। आप प्रजाओं में
अतिथि रूप हैं ॥९ ॥
३६५१. तुभ्यं भरन्ति क्षितयो यविष्ठ बलिमग्ने अन्तित ओत दूरात् ।
आ भन्दिष्ठस्य सुमतिं चिकिद्धि बृहत्ते अग्ने महि शर्म भद्रम् ॥९० ॥
हे युवा (सामर्य्यवान्) अग्ने ! आपके उपासक लोग दूर से अथवा पास से आपके लिए भोज्य पदार्थ अर्पित
करते है । आप शुद्ध उच्वारणयुक्त स्तुति करने वाले की श्रेष्ठ बुद्धि को जानें हे अग्निदेव ! ! आपका महान् आश्रय
अति कल्याणकारी है ॥१० ॥
:३६५२. आद्य रथं भानुमो भानुमन्तपग्ने तिष्ठ यजतेभि: समन्तम्।
विद्वान्यथीनामुर्व १नतरिक्षमेह देवान्हविरद्याय वक्षि ॥१९॥
हे तेजस्वी अग्निदेव ! आप तेजस्वी और सुन्दर रथ पर पूज्य देवों के साथ बैठकर आयें । सब
देवों को जानने वाले आप उन्हें हविष्यात्न ग्रहण करने के लिए व्यापक अन्तरिश के सुगम मार्गों से यहाँ
इस यज्ञ में लाये ॥११ ॥
३६५३. अवोचाम कवये मेध्याय वचो वन्दार वृषभाय वृष्णो ।
गविष्ठिरो नमसा स्तोममग्नौ दिवीव रुक्ममुरुव्यज्चमश्रेत् ॥१२ ॥
त्रिकालदर्शी, शक्तिशाली तथा सेचन (प्राण तत्त्व प्रदान करने) में समर्थ यज्ञाग्नि का स्तोत्र पाठ से हम स्तवन
करते है । वाणी मे स्थिर. हविदाता, आवाहित अग्नि में मंत्रोच्वारणपूर्वक हविध्यान्न उसी प्रकार समर्पित करते हैं,
जिस प्रकार द्युलोक में प्रकाशमान आदित्य को संध्योपासना के समय कही गई विशिष्ट महिमायुक्त प्रार्थनाएँ
समर्पित की जाती है ॥१२ ॥