श्रीअङ्गोमे चन्दनका अनुलेपन करे। फिर “युवा
सुवासा:०' (ऋक्० ३।८।४) मन्त्रसे वस्त्र और
“पुष्पवती०' (अथर्व० ८।७। २७) इत्यादि मन्त्रसे
पुष्प एवं ' धूरसि ' (यजु० १।८) आदि मन्त्रसे
धूप समर्पित करे। ' तेजोऽसि शुक्रमसि० ' ( यजु०
१।३१)--इस मन््रसे दीप तथा “दधिक्राव्णो०'
(यजु० २३।३२) मन्त्रसे मधुपर्क निवेदन करे।
नरश्रेष्ठ ! तदनन्तर ' हिरण्यगर्भः°' आदि आठ
ऋचा्ओंका पाठ करके अन्न एवं सुगन्धित पेय
पदार्थका नैवेद्य समर्पित करे । इसके अतिरिक्त
भगवान्को चामर, व्यजन, पादुका, छत्र, यान एवं
आसन आदि जो कुछ भी समर्पित करना हो, वह
सावित्र-मन्त्रसे अर्पण करे । फिर ' पुरुषसूक्त" का
जप करे ओर उससे आहुति दे। भगवद्विग्रहके
अभावे वेदिकापर स्थित जलपूर्णं कलशमें, अथवा
नदीके तटपर, अथवा कमलके पुष्ये भगवान्
विष्णुका पूजन करनेसे उत्पातोंकी शान्ति होती
है ॥ १--७॥
( काम्य बलिवैश्वदेव-प्रयोग ) भूमिस्थ वेदीका
मार्जन एवं प्रोक्षण करके उसके चारों ओर कुशको
बिछावे । फिर उसपर अग्रिको प्रदीप्त करके उसमें
होम करे' । महाभाग परशुराम! मन और इन्द्रियोंको
संयममें रखते हुए सब प्रकारकी रसोईमेंसे अग्राशन
निकालकर गृहस्थ द्विज क्रमश: वासुदेव आदिके
लिये आहुतियाँ दे। मन्त्रवाक्य इस प्रकार है -
"प्रभवे अव्ययाय देवाय वासुदेवाय नमः स्वाहा।
अग्नये नमः स्वाहा । सोपाय नमः स्वाहा \ मित्राय
नमः स्वाहा। वरुणाय नमः स्वाहा । इन्द्राय नमः
स्वाहा इन्द्राग्नीभ्यां नमः स्वाहा । विश्वेभ्यो देवेभ्यो
नमः स्वाहा। प्रजापतये नमः स्वाहा। अनुमत्यै
जपः स्वाह्य। धन्वन्तरये नमः स्वाहा । वास्तोष्यतये
नमः स्वाहा । देव्यैः नमः स्वाहा । एवं अग्नये
स्विष्टकृते नमः स्वाहा ।' इन देवताओंको उनका
चतुर्ध्यन्त नाम लेकर एक-एक ग्रास अननकी
आहुति दे। तत्पश्चात् निम्नाद्धित रीतिसे बलि
समर्पित करे ॥ ८--१२॥
धर्मज्ञ! पहले अग्निदिशासे आरम्भ करके तक्षा,
उपतक्षा, अश्वा, ऊर्णा, निरुन्धी, धूप्रिणीका,
अस्वपन्ती तथा मेघपत्री -इनको बलि अर्पित
करे । भृगुनन्दन ! ये ही समस्त बलिभागिनी देवियोकि
नाम हैं। क्रमशः आग्नेय आदि दिशाओंसे
आरम्भ करके इन्हें बलि दे। (बलि-समर्पणके
वाक्य इस प्रकार हैं-तक्षाय नमः आग्ने्याम्,
उपतक्षायै नमः याम्ये, अश्चाभ्यो नमः नैर््रत्ये,
ऊर्णाभ्यो नमः वारुण्याम्, निरुग्ध्यै नम: वायव्ये,
धृप्रिणीकायै नमः उदीच्याम्, अस्वपन्त्यै नमः
ऐशान्याम्, पेधपल्यै नमः प्राच्याम्।) भार्गव!
तदनन्तर नन्दिनी आदि शक्तियोंको बलि अर्पित
करे । यथा- नन्दिन्यै नमः, सुभगायै नमः (अथवा
सौभाग्यायै नमः), सुमङ्गल्यै नमः, भद्रकाल्यै ' नमः ।
इन चारोके लिये पूर्वादि चारों दिशाओंमें बलि
देकर किसी खम्भे या खूँटेपर लक्ष्मी" आदिके
लिये बलि दे। यथा--श्रियै नमः, हिरण्यकेश्यै
नमः तथा वनस्पतये नमः । द्वारपर दक्षिणभागमें
नेये कनननननन-ननननन+नन+++«»न++म+म
१. यहाँ मूलमें संक्षेपसे अग्निस्थापनकी विधि दी गयी है । इसे विशदरूपमे इस प्रकार समझे-पहले भूमिस्थ येदीपर कुशोंसे
सम्मार्जज करके उन कुशोंकों ईरान दिखामें फेंक दे; इसके बाद उस वेदोपर शुद्ध जल छिड़के। तदनन्तर खुबाके मूलभागसे उस
चेदीपर तीन उत्तरोत्तर रेखाएँ अङ्कित करे। इन रेखाओंकी लंबाई प्रादेशमात्र हो। उल्लेखन-क्रमसे रेखाओंके ऊपरसे थोड़ो-थोड़ी मिट्टी
अतामिका एव॑ अन्लुपरद्वारा
उठाकर खायें हाथपर रखे और उन सबको एक साथ फेंक दे। तत्पछ्ठात् गोबर और जलसे उस येदौकों
लोपे और उसके कपर कांस्यपात्रे अग्रि मैगाकर स्थापित करे। उस अग्निके ऊपर कुछ कास््ठकी समिधाएँ रखकर अग्रिकों प्रज्वलित
करें। वेदीके चारों ओर कुश बिछा दै। फिर प्रज्वलित अग्ने होम करे।
२. मनुस्मृतिके अनुसार यह आहुति 'द्याया-पृथिवी 'के लिये दी जाती है। यथा--'छायापृथिवीभ्यां वमः स्वाहा।'
३. मनुस्मृत्तिके अनुसार भद्रकालीको बलि जास्तुपुरुषके
अरणकी दिशा-दक्षिण-पश्चिसमें देनी चाहिये।
४. लक्ष्मीको वास्तुपुल्षके शिरोभाग उत्तर-पूर्वमें वल्लि दी जाती है।