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म॑० ४ सुर ५० ७५

हे इन्द्र और वृहस्पतिदेवो ! यह स्नेहे युक्त आहुतियाँ हम आपके मुख (यज्ञाग्नि) में समर्पित करते है । आप

दोनों को हम स्तोत्र तथा हर्षप्रदायक सोमरस प्रदान करते हैं ॥१ ॥

३५५९, अयं वां परि षिच्यते सोम इन्द्रावहस्पती । चारुर्मदाय पीतये ॥२ ॥

हे इन्द्र और वृहस्पतिदेवो ! आपके हर्ष के लिए तथा सोमरस पान के लिए यह मनोहर सोमरस अभिषुत

किया जाता है ॥२ ॥

३५६०. आ न इन्द्राबृहस्पती गृहमिन्द्रश्च गच्छतम्‌ । सोपपा सोमपीतये ॥३ ॥

हे सोमपान करने वाले इन्द्र तथा वृहस्पतिदेवो ! सोमरस पान के निमित्त आप तथा इन्द्रदेव हमारे घर में

पधार ॥३ ॥

३५६१. अस्मे इन्द्राबृहस्पती रयिं धत्तं शतग्विनम्‌ । अश्वावन्तं सहल्लिणम्‌ ॥४ ॥

हे इन्द्र और बृहस्पतिदेवों आप हमे सैकड़ों गौओं तथा हजारों अश्वों से सम्पन्न ऐश्वर्य प्रदान करें ॥४ ॥

३५६२. इन्द्राबृहस्पती वयं सुते गीर्भिहंवामहे । अस्य सोमस्य पीतये ॥५ ॥

हे इन्द्र और वृस्पतिदेवो ! सोमरस के निचोड़े जाने पर हम सोमरस के निमित्त शरर्थनाओ दवारा आपको

आवाहित करते हैं ॥५ ॥

३५६३. सोममिन्द्राबृहस्पती पिबतं दाशुषो गृहे । मादयेथां तदोकसा ॥६ ॥

हे इन्द्र और वृहस्यतिदेवो ! आप दोनों हवि प्रदाता यजमान के गृह मे सोमपान करें तथा उसके गृह में वास

करके हर्षित हों ॥६ ॥

[ सूक्त - ५० |

| ऋषि - वापदेव गौतम । देवता - बृहस्पति; १०-११ इद्धावृहस्पती । छन्द - व्रिष्रुप; १० जगती ॥|

३५६४ यस्तस्तम्भ सहसा वि ज्मो अन्तान्बृहस्पतिस्त्िषधस्थो रवेण ।

तं प्रलास ऋषयो दीध्यानाः पुरो विप्रा दधिरे मन्द्रजिद्वम्‌॥१ ॥

तीनों लोकों में निवास करने वाले जिन वृहस्पतिदेव ने धरती की दशो दिशाओं को स्तम्भित किया, उन

मीठी बोली वाले वृहस्पतिदेव को पुरातन ऋषियों तथा तेजस्वौ विद्वानों ने पुरोभाग में स्थापित किया ॥१ ॥

३५६५. धुनेतयः सुप्रकेतं मदन्तो बृहस्पते अभि ये नस्ततस्रे ।

पृषन्तं सृप्रमदब्धमूर्वं बृहस्पते रक्षतादस्य योनिम्‌ ॥२ ॥

है बृहस्पतिदेव ! जिनकी गति रिपुओं को प्रकम्पित करने वालों है, जो आपको आनन्दित करते हैं तथा

आपकी प्रार्थना करते हैं; उनके लिए आप फल प्रदान करने वाले, वृद्धि करने वाले तथा हिंसा न करने वाले होते

हैं। आप उनके विस्तृत यज्ञ को सुरक्षा प्रदान करते हैं ॥२ ॥

३५६६, बृहस्पते या परमा परावदत आ त ऋतस्पृशो नि षेदुः ।

तुभ्यं खाता अवता अद्रिदुग्धा मध्य: श्चोतन्त्यभितो विरण्ाम्‌ ॥३ ॥

हे बृहस्यतिदेव ! दूरवतौं प्रदेश में जो अत्यधिक श्रेष्ठ स्थान है, वहाँ से आपके अश्च यज्ञ मे पधारते दै ।

जिस प्रकार गहरे जलकुण्ड से जल श्रवित होता है, उसी प्रकार आपके चारों ओर प्रार्थनाओं के साथ पत्रो द्वारा

निचोड़ा गया सोम, मधुर रस का अभिर्षिचन करता है ॥३ ॥

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