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* अध्याय २५९ *

अपराहमें जप करनेसे सम्पूर्ण दुःस्वप्मका नाश

होता है एवं उत्तम भोजनकी प्राप्ति होती है।

"उभे पुनामि रोदसी ' (१।१३३। १)-यह मन्त्र

राक्षससोका विनाशक कहा गया दै । "उभयासो

जातवेदः०' (२।२। १२-१३) आदि ऋचाओंका

जप करनेवाला मनोऽभिलषित वस्तु ओंँको प्राप्त

करता है । ' तमागन्म सोमरयः०' (८। १९। ३२)

ऋचाका जप करनेवाला मनुष्य आततायीके भयसे

छुटकारा पाता है ॥ २२--३४॥

“कया शुभा सवयसः०' (१। १६५।१)-

इस ऋचाका जप करनेवाला अपनी जातिमे श्रेष्ठताको

प्राप्त करता है । "इमं नु सोमम्‌०' (१। १७९।५)--

इस ऋचाका जप करनेसे मनुष्यको समस्त

कामनाओंकी प्राप्ति होती है । पितुं नु स्तोषं०'

(१।१८७। १) ऋचासे नित्य उपस्थान करनेपर

नित्य अन्न उपस्थित होता है । * अग्रे नय सुपथा० '

(१।१८९। १)--इस सुक्तसे घृतका होम किया

जाय तो वह परलोकमें उत्तम मार्ग प्रदान करनेवाला

होता है। जो सदा सुश्लोकका जप करता है, वह

वीरको न्यायके मार्गपर ले जाव्रा है । "कङ्कतो न

कङ्कतो" (१।१९१। १)--इस सूक्तका जप सब

प्रकारके विघ्नोंका प्रभाव दूर कर देता है। "यो

जात एव प्रथमो० ' (२। १२)--इस सूक्तका जप

करनेवाला सभी कामनाओंको प्राप्त कर लेता है ।

“गणानां त्वा० ' (२। २३। १) सूक्तके जपसे उत्तम

स्निग्ध पदार्थ प्राप्त होता है। "यो मे राजनू०'

(२।२८। १०)-यह ऋचा दुःस्वप्नोंका शमन

करनेवाली है । मार्गमे प्रस्थित हुआ जो मनुष्य

अपने सामने प्रशस्त या अप्रशस्त शत्रुकों खड़ा

हुआ देखे, वह "कुविद ङ्ग० ' इत्यादि मन्त्रका जप

करे, इससे उसकी रक्षा हो जाती है । बाईसवें

उत्तम आध्यात्मिक सूक्तका पर्वकालमें जप करनेवाला

मनुष्य सम्पूर्ण अभीष्ट कामनाओंको प्राप्त कर

लेता है । ' कृणुष्व पाजः०' (४।४।१)--इस

सूक्तका जप करते हुए एकाग्रचित्तसे चीकी आहुति

देनेवाला पुरुष शत्रुओंके प्राण ले सकता है तथा

राक्षसोंका भी विनाश कर सकता है। जो स्वयं

*परि० ' इत्यादि सुक्तसे प्रतिदिन अग्रिका उपस्थान

करता है, विश्वतोमुख अग्निदेव स्ववं उसकी

सब ओरसे रक्षा करते हैं। "हंसः शुचिषत्‌० '

(४।४०।५) इत्यादि मन्त्रका जप करते हुए सूर्यका

दर्शन करे । ऐसा करनेसे मनुष्य पवित्र हो जाता

है ॥ ३५--४३॥

कृषिमें संलग्र गृहस्थ मौन रहकर क्षत्रके

मध्यभागे विधिवत्‌ स्थालीपाक होम करे। ये

आहुतियाँ “इन्द्राय स्वाहा। मरुद्धघः स्वाहा ।

पर्जन्याय स्वाहा । एवं भगाव स्वाहा ।'-- कहकर

उन-उन देवताओंके निमित्त अग्रिमे डाले। फिर

जैसे स्त्रीकी योनिमें बीज-वपनके लिये जननेन्द्रियका

व्यापार होता है, उसी तरह किसान धान्यका बौज

योनेके लिये हराईके साथ हलका संयोग करे

और "शुनासीराविमां" (४।५७।५)-इस

ऋचाका जप भी करावे। इसके बाद गन्ध, माल्य

और नमस्कारके द्वारा इन सबके अधिष्ठाता

देवताओंकी पूजा करे । ऐसा करनेपर बीज बोने,

फसल काटने और फसलको खेतसे खलिहानमें

लानेके समय किया हुआ सारा कर्म अमोघ होता

है, कभी व्यर्थ नहीं जाता। इससे सदैव कृषिकी

वृद्धि होती है।“समुद्रादूर्मि्मधुमान्‌०' (४।५८।१)

इस सूक्तके जपसे मनुष्य अग्निदेवसे अभीष्ट

वस्तुओंकी प्राप्ति करता है। जो "विश्वानि नो

दुर्गहा०' (५।४।९-१०) आदि दो ऋचाओंसे

जो अग्रिदेवका पूजन करता है, वह सम्पूर्ण

विपत्तियोंकों पार कर जाता है और अक्षय यशकी

प्राप्ति करता है। इतना ही नहीं, वह विपुल

लक्ष्मी और उत्तम विजयको भी हस्तगत कर

लेता है। 'अग्रे त्वम्‌" (५।२४।१)-इस

तऋचासे अग्रिकी स्तुति करनेपर मनोवाञ्छित धनकी

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