* श्रीकृष्ण जन्मखण्ड * ५६७
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हैं। आप हौ विद्वानोंके जनक, विद्वान् तथा | पाठ करे तो पुत्र पाता है। भार्याहीनको सुशीला
दिद्वानोंके गुरु हैं। आप ही मन्त्र, जप, तप और | तथा परम मनोहारिणी भार्य प्राप्त होती है । वह
उनके फलदाता हैं। आप ही वाक् ओर आप | चिरकालसे खोयी हुई वस्तुको सहसा तथा
ही वाणीकी अधिष्ठात्री देवौ है । आप हौ उसके | अवश्य पा लेता है। राज्यभ्रष्ट पुरुष भगवान्
सषटा और गुरु है । अहो ! सरस्वतीका बीज अद्भुत | शंकरके प्रसादसे पुनः राज्यको प्राप्त कर लेता
है। यहाँ कौन आपकी स्तुति कर सकता है ? है। कारागार, श्मशान और शत्रु-संकटमें पड़नेपर
ऐसा कहकर गिरिराज हिमालय उनके | तथा अत्यन्त जलसे भरे गम्भीर जलाशयमें नाव
चरणकमलोंकों धारण करके खड़े रहे। भगवान् |टूट जानेपर, विष खा लेनेपर, महाभयंकर
शिव वृषभपर बैठे हुए शैलराजको प्रबोध देते | संग्रामके बीच फैंस जानेपर तथा हिंसक जन्तुओंसे
रहे। जो मनुष्य तीनों संध्याओंके समय इस परम | धिर जानेपर इस स्तुतिका पाठ करके मनुष्य
पुण्यमय स्तोत्रका पाठ करता है, वह भवसागरमें | भगवान् शंकरकी कृपासे समस्त भयोंसे मुक्त हो
रहकर भी समस्त पापों तथा भयोंसे मुक्त हो | जाता है।
जाता है। पुत्रहीन मनुष्य यदि एक मासतक इसका (अध्याय ३७-३८)
ननन
गिरिराज हिमवानद्वारा गणोसहित शिवका सत्कार, मेनाको शिवके अलौकिक
सौन्दर्यके दर्शन, पार्वतीद्वारा शिवकी परिक्रमा, शिवका उन्हें आशीर्वाद,
शिवाद्वारा शिवका षोडशोपचार-पूजन, शंकरद्वारा कामदेवका दहन
तथा पार्वतीको तपस्याद्वारा शिवकी प्राप्ति
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं--प्रिये! इस छोडकर नूतन यौवन धारण करते थे और
प्रकार स्तुति करके गिरिराज हिमवान् नगरसे | अत्यन्त सुन्दर रमणीय रूप हो युवतियोंके चित्त
दूर निवास करनेवाले भगवान् शंकरसे कुछ ही | चुरा रहे थे। वे कामातुरा कामिनियोंकों कामदेवके
दूरीपर उनकी आज्ञा ले स्वयं भी ठहर गये । | समान जान पड़ते थे। सतियोंको औरस पुत्रके
उन्होंने भक्तिपूर्वक भगवान्को मधुपर्क आदि | समान प्रतीत होते थे। वैष्णर्वोको महाविष्णु तथा
दिया और मुनियों तथा शिवके पार्षदोंका पूजन | शैवोंकों सदाशिवके रूपमे दृष्टिगोचर होते थे।
किया। उस समय मेना स्त्रियोंके साथ वहाँ | शक्तिके उपासकोंको शक्तिस्वरूप, सूर्यभक्तोंको
आयी। उसने वटके नीचे आसन लगाये | सूर्यरूप, दुष्टौको कालरूप तथा श्रेष्ठ पुरुषोंको
चन्द्रशेखर शिवको देखा। उनके प्रसन्न मुखपर | परिपालकके रूपमे दिखायी देते थे। कालको
मन्द हास्यकौ छटा छा रही थी। वे व्याघ्रचर्मं | कालके समान, मृत्युको मृत्यु एवं अत्यन्त
धारण किये मुनि-मण्डलीके मध्य भागे ब्रह्मतेजसे | भयानक जान पड़ते थे । स्त्रियोके लिये उनका
प्रकाशिते हो रहे थे, मानो आकाशमें तारिकाओंके | व्याघ्रचर्म मनोहर वस्त्र बन गया। भस्म चन्दन
बीच द्विजराज चन्द्रमा शोभा पा रहे हों। करोड़ों | हो गया। सर्पं सुन्दर मालाओंकि रूपमे परिणत
कन्दपकिं समान उनका मनोहर रूप अत्यन्त | हो गये। कण्ठमें कालकूटकी प्रभा कस्तूरीके
आह्वाद प्रदान करनेवाला था। वे वृद्धावस्था | समान प्रतीत हुई । जटा सुन्दर संवारी हुई चूड़ा