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मं० १ सु० १३१ २०३

१४६२. भिनत्पुरो नवतिमिन्द्र पूरवे दिवोदासाय महि दाशुषे नृतो वग्रेण दाशुषे नृतो ।

अतिथिग्वाय शम्बरं गिरेरुग्रो अवाभरत्‌।

महो धनानि दयमान ओजसा विश्वा धनान्योजसा ॥७ ॥

हे आनन्दपरद इन्द्रदेव आपने महान्‌ दानदाता पुरु ओर दिवोदास के लिए शत्रुओं कौ नब्बे नगरियों

का वन्न द्वारा विध्वंस कर डाला । हे पराक्रमी वीर इन्द्रदेव आपने अपनी शक्ति- सापर्थ्य से प्रचुर धन-सम्यदा

अतिथिग्व के लिए प्रदान कौ तथा शम्बर को पर्वत से गिराकर समाप्त कर दिया ॥७ ॥

१४६३. इन्द्र: समत्सु यजमानमार्यं प्रावद्विश्वेषु शतमूतिराजिषु स्वर्मीकहेष्वाजिषु ।

पनवे शासदव्रतान्त्वचं कृष्णामरन्यत्‌।

दक्षन्न विश्वं ततृषाणमोषति न्यर्शसानमोषति ८ ॥

परस्पर संगठित होकर किये जाने वाले युद्धो में सैकड़ों संरक्षण साधनों से युक्त इन्द्रदेव श्रेष्ठ मनुष्यों का

संरक्षण करते हैं, मननशील मनुष्यों को पीड़ित करने वाले दुष्टो को दण्डित करके नियन्त्रित करते है तथा कलुषित

कर्मों में संलिप्त दुष्टों का संहार करते हैं । इन्द्रदेव उपद्रवियों को उसी प्रकार भस्म कर देते हैं, जैसे अग्नि पदार्थों

को जला डालती है । निश्चित ही वे हिंसकों को भस्म कर देते हैं ॥८ ॥

१४६४. सूरश्चक्रं प्र वृहज्जात ओजसा प्रपित्वे वाचमरुणो मुषायतीशान आ मुषायति।

उशना यत्परावतोऽजगन्नूतये कवे ।

सुम्नानि विश्वा मनुषेव तुर्वणिरहा विश्वेव तुर्वणिः ॥९ ॥

तेजस्वी और सबके प्रेरक इन्द्रदेव अपनी शक्ति- सामर्थ्य रूपी चक्र को लेकर शत्रुओं के पास पहुँचते ही

उन्हें शान्त कर देते हैं, मानो अधीश्वर एनद्रदेव ने उनकी वाणी का ही हरण कर लिया हो । हे क्रान्तदर्शी इन्द्रदेव !

आप जिस प्रकार उशना ऋषि के संरक्षणार्थं अतिदूर से हो उनके समीप आते हैं, वैसे ही मनुष्यों के लिए भी सभी

प्रकार के सुखो को प्रदान करें । जिस प्रकार कोई व्यक्ति सम्पूर्ण दिन, दान में व्यतीत करता है, हमारे लिए आप

वैसे ही दाता बनें ॥९ ॥ [ि

१४६५. स नो नव्येभिर्वृषकर्मप्रुक्थैः पुरां दर्तः पायुभिः पाहि शग्मैः ।

दिवोदासेभिरिनर स्तवानो वावृधीथा अहोभिरिव द्यौः ॥१० ॥

शत्रुओं के नगरों को ध्वस्त करने वाले सामर्थ्य सम्पन्न हे इन्द्रदेव आप नवरचित स्तोत्रों से सन्तुष्ट होकर

सुखप्रद लाथनों और हमारे अनुष्ठित कर्मो का संरक्षण करे । हे इनद्रदेव ! जिस प्रकार दिवस सूर्य की तेजस्विता

को द्युलोक? फैलाते हैं, वैसे ही हमारे स्तोत्र आपकी शक्ति को बढ़ायें ॥१० ।

[ सूक्त - १३१ ]

( ऋषि- परुच्छेप दैवोदासि । देवता- इन्र । छन्द. अत्यष्टि ]

१४६६. इन्द्राय हि द्यौरसुरो अनम्नतेन्द्राय मही पृथिवी वरीमधि भर्युप्नसाता वरीमभिः

इं विश्वे सजोषसो देवासो दधिरे परः! न '

इन्द्राय विश्वा सवनानि मानुषा रातानि ॥१ ॥

विस्तृत पृथ्वों और तेजस्वी द्युलोक ने अपने स का सहयोग किया । उत्साहिते

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