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प्रध्यमपर्य, प्रथम भाग ]

# पूर्त-कर्म-निरूपण ]

२०३

होकर बहुत-से पुण्योकी प्राप्ति कर लेते हैं।

जो वाचक सदा सम्पूर्ण ग्रन्थके अर्थं एवं तात्पर्यको

सम्यक्‌ रूपसे जानता है, वही उपदेश करनेके योग्य है और

वही विप्र व्यास कह] जाता है। ऐसे काचक विप्र जिस नगर

या ग्रामे रहते हैं, वह पुण्यक्षेत्र कहा जाता है । वहाँकि निवासी

घन्य तथा सफल-आत्मा हैं, कृतार्ध हैं एवं उनके समस्त

मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं।

जैसे सूर्यरहित दिन, चन्द्रशून्य रात्रि, बालकोंसे शून्य गृह

तथा सूयक बिना ग्रहोंका शोभा नही होती, वैसे ही व्याससे

रहित सभाकी धौ शोभा नहीं होतो।

श्रीसूतजी बोले--द्विजोत्तम ! गुरुको चाहिये कि

कराये । अन्यायसे धनार्जने करनेवाले, निर्भय, दाष्मिक, द्वेषी,

निरर्थक और मन्थर गतिवाले एवं सेवारहित, यज्ञ न

करनेवाले, पुरुषत्वहीन, कठोर, क्रुद्ध. कृपण, व्यसनी तथा

नन्दक शिष्यको दूरसे ही परित्याग कर देना चहिये । पुत्रपौत्र

आदिके अतिरिक्त नम्र व्यक्तिको भी विद्या देनी चाहिये।

विद्याको अपने साथ लेकर मर जाना अच्छ है, किंतु

अनधिकारी व्यक्तिको विद्या नहीं देनी चाहिये । विद्या कहती है

कि मुझे 'भक्तिहोन, दुर्जन तथा दुष्टात्मा व्यक्तिको प्रदान मत

करो, मुझे अप्रमादी, पवित्र, ब्रह्मचारी, सार्थक तथा विधिज्ञ

सजनको ही दो। यदि निषिद्ध व्यक्तिको श्रेष्ठ विद्याधन दिया

जाता है तो दाता और ग्रहणकर्ता--इन दोनॉमेंसे एक स्वल्प

समये हो यमपुरी चला जाता है! पढ़नेवालेक्री चाहिये कि

वह आध्यात्मिक, वैदिक, अस्जैकिक विद्या पढ़ानेवालेको

प्रथम सादर प्रणाम कर अध्ययन करें। कर्मकाण्डका अध्ययन

बिना ज्योतिषज्ञानके नहीं करना चाहिये। जो विषय शाम्त्रॉ्मे

, नहीं कहे गये हैं और जो स्लेच्छोंद्रारा कधित हैं, उनका कभी

भी अभ्यास नहीं करना चाहिये। जो स्वये धर्माचरण कर

धर्मका उपदेश करता है, वही ज्ञान देनेवाला पिता एवं

गुरु-स्वरूप है तथा ऐसे ज्ञानदाताका ही धर्म प्रवर्तित होता है ।

(अध्याय ७-८)

>> ७०४ मर9>-

पूर्त-कर्म-निरूपण

सूतजीने कहा--ब्राह्मणों ! युगान्तरमें ब्रह्मने जिस

अन्तर्वेदि ओर बहिर्वेदिकों बात बतलायी है, वह द्वापर और

कल्तयुगके लिये अत्यन्त उत्तम मानी गयी है। जो कर्म

ज्ञानसाध्य है, उसे अन्तर्वेदिकर्म कहते हैं। देवताकी स्थापना

और पूजा बहिवेंदि (पूर्त) कर्म है। वह बहिरवेंदि-कर्म दो

प्रकारका है--कुआँ, पोखरा, तात्परव आदि खुदवाना और

ब्राह्मणोंकों संतुष्ट करना तथा गुरुजनॉकी सेवा।

निष्कामभावपूर्वक किये गये कर्म तथा व्यसनपूर्वक

किया गया हरिस्मरणादि श्रेष्ठ कर्म अन्तर्वेदि-कर्मांके अन्तर्गत

आते हैं, इनके अतिरिक्त अन्य कर्म बहिर्वेदि-कर्म कहल्पते

है। धर्मका कारण राजा होता है, इसलिये राजाको धर्मका

पालन करना चाहिये ओर राजाका आश्रय छेकर प्रजाको भी

बहिवेंदि (पूर्त) कर्मकर पालन करना चाहिये । यों तो बहिर्वेदि

(पूर्त) कर्म सतासी प्रकारके कहे गये हैं, फिर भौ इनमें तीन

प्रधान है--देवताका स्थापन, प्रासाद और तदाग आदिका

निर्माण । इसके अतिरिक्त गुरूजनोंकी पूजापूर्वक पितृपूजा,

निर्माण तथा वृक्षारोपण आदि भी पूर्त-कर्म हैं।

देवताओंकी प्रतिष्ठा उत्तम, मध्यम तथा कनिप्ठ-भेदसे

तीन प्रकारक होती है। प्रतिष्ठामें पूजा, हवन तथा दान आदि

ये तीन कर्म प्रधान हैं। तीन दिनम सम्पन्न होनेवाले

प्रतिष्ठा-विधानोंमें अड्टाईस देवताओंकी पूजा तथा जापकरूपमें

सोलह ऋह्मण रखकर प्रतिष्ठा करानी चाहिये। प्रतिष्ठाकी यह

उत्तम विधि कही गयी है । ऐसा करनेसे अश्वपेधयज्ञका फल प्राप्त

होता है। मध्यम प्रतिष्ठा-विधिमें यजन करनेवाले चार विद्धान्‌

ब्राह्मण तथा तेईस देवता होते हैं। इसमें नवग्रह, दिक्पाल,

वरुण, पृथ्वी, शिव आदि देवताओंकी एक दिनमें ही पूजा

सम्पन्न कर देवताकी प्रतिष्ठा की जाती है। जो मात्र गणपति,

ग्रह-दिक्पाऊ-वरुण और विव अर्चना कर प्रतिष्ठा-विधान

किया जाता है, वह कनिष्ठ विधि है क्षुद्र देवताओंकी भी

प्रतिमा जाना प्रकारके वृक्षोकी लक्कड़ियोंसे बनायी जती हैं।

नवीन ताल्मब, बावली, कुण्ड और जल-पौसरा आदिका

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