* अध्याय ९७ *
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प्रकार करे-
"ॐ सर्वसंदोहस्वरूपे महाविद्ये पूर्णे! तुम
अड्विरा-ऋषिकी पुत्री हो । इस प्रतिष्ठाकर्ममें सब
कुछ सम्यक्-रूपसे ही पूर्ण करो। नन्दे! तुम
समस्त पुरुषोंको आनन्दित करनेवाली हो। मैं
यहाँ तुम्हारी स्थापना करता हूँ। तुम इस प्रासादे
समपूर्णतः तृत होकर तबतक सुस्थिरभावसे स्थित
रहो, जबतक कि आकाशे चन्द्रमा, सूर्य और
तारे प्रकाशित होते रह । .वसिष्ठनन्दिनि नन्दे ! तुम
देहधारियोंकों आयु, सम्पूर्णं मनोरथ तथा लक्ष्मी
प्रदान करो। तुम्हे प्रासादे सदा स्थित रहकर
यत्नपूर्वक इसकी रक्षा करनी चाहिये।
मनोरथ और लक्ष्मी प्रदानं करती रहो । ॐ देवि
जये! तुम सदा-सर्वदा हमारे लिये लक्ष्मी तथा
आयु प्रदान करनेवाली होओ। भृगुपुत्रि देवि जये।
तुम स्थापित होकर सदा यहीं रहो और इस
मन्दिरके अधिष्ठाता मुञ्च यजमानको नित्य-निरन्तर
विजय तथा धर्यं प्रदान करनेवाली बनो । ॐ
रिक्ते! तुम अतिरिक्त दोषका नाश करनेवाली तथा
सिद्धि और मोक्ष प्रदान करनेवाली हो। शुभे!
सम्पूर्ण देश-कालमें तुम्हारा निवास है । ईशरूपिणि!
तुम सदा इस प्रासादमें स्थित रहो ॥ ९--१६॥
तत्पश्चात् आकाशस्वरूप मन्दिरका ध्यान
करके उसमें तीन तत्त्वोंका न्यास करें। फिर
ॐ कश्यपनन्दिनि भद्र ! तुम सदा समस्त लोकोंका | विधिवत् प्रायश्चित्त-होम करके यज्ञका विसर्जन
कल्याण करो। देवि! तुम सदा ही हमें आयु, | करे ॥ १७॥
इस प्रकार आदि आत्रेय महापुराणमें 'शिलान्यासकी विधिका वर्यति" नामक
चौरानवेवां अध्याय पूरा हुआ॥ ९४॥
पंचानबेवाँ अध्याय
प्रतिष्ठा-काल-सामग्री आदिकी विधिका कथन
भगवान् शंकर कहते हैं--स्कन्द! अब मैं | करनी चाहिये। विशेषतः शुक्लपक्षे तथा कृष्ण-
मन्दिरमें लिङ्ग-स्थापनाकी विधिका वर्णन करूँगा,
पक्षमें भी पञ्चमी तिथितकका समय प्रतिष्ठाके
जो भोग और मोक्षको देनेबाली है। यदि मुक्तिके | | लिये शुभ माना गया है। चतुर्थी, नवमी, षष्ठी
लिये लिङ्ग-प्रतिष्टा करनी हो तो उसे हर समय
और चतुर्दशीकों छोड़कर शेष तिथियाँ क्रूर-
किया जा सकता है, परंतु यदि भोग-सिद्धिके | ग्रहके दिनसे रहित होनेपर उत्तम मानी गयी
उद्देश्यसे लिड्र-स्थापना करनेका विचार हो तो
देवताओंका दिन (उत्तरायण) होनेपर ही वह
कार्य करना चाहिये। माघसे लेकर पाँच महीनोंमें,
चैत्रको छोडकर, देवस्थापना करनेकी विधि है।
जब गुरु और शुक्र उदित हों तो प्रथम तीन
हैं॥ १--३ ३ ॥
शतभिषा, धनिष्ठा, आद्रा, अनुराधा, तीनों
उत्तरा, रोहिणी और श्रवण--ये नक्षत्र स्थिर
प्रतिष्ठा आरम्भ करनेके लिये महान् अभ्युदयकारक
कहे गये हैं। कुम्भ, सिंह, वृश्चिक, तुला, कन्या,
कर्णो (क्व, बालव और कौलव) -मे स्थापना | वृष-ये लग्र श्रेष्ठ बताये गये है ।* बृहस्पति
* यहाँ सोमशम्भुने अपनी " कर्मकाण्ड-क्रमावली ' मे पिङ्गलाम्के अनुसार चारों वणोकि लिये पृथक्-पृथक् प्रतिष्टोपयोगी प्रशसा
अक्षत्र त्ये हैं-- पुष्य, हस्त, उत्तसषादु, पूर्कषाद् और रोहिणो - ये नक्षत्र ब्राह्मणके लिये श्रेष्ठ कहे गये है । क्षत्रियके लिये पुतर्वसु, चित्रा,
धनिष्ठा और श्रयण उत्तम कहे गये हैं। वैश्यके लिये रेवती, आर्द्रा, उत्ता और अधिनी शुभ नक्षत्र हैं तथा शुद्रके लिये मघा, स्वाती और
पूर्वाफालगुती - ये नक्षत्र ब्रेष्ठ हैं। (श्लोक १३२४--१३२७ तक)