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उत्तरखण्ड ]

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समस्तथर्मसुः सर्वश्चर्मद्रष्टाखिललार्तिह्ा ।

अतीन्‍्द्रो ज्ञानविज्ञानपारद्रष्ठा क्षमाम्बुधि: ॥ २२० ॥

५९३ संमस्तथधर्मसू:--समस्त धर्मोको उत्पन्न

करनेवाले, ५९४ सर्वधर्मद्रष्टा-- सम्पूर्ण धर्मोपर दृष्टि

रखनेवाले, ५९५ अखिल्ार्तिहा--सबकी पीड़ा दूर

करनेवाले अधवा समस्त पीडाओकि नादाक, ५९६

अतीन्द्रः --इन्द्रसे भौ बढ़कर ऐश्वर्यशाली, ५९७

ज्ञानविज्ञानपारद्रष्टा-- ज्ञान और विज्ञानके पारेगत,

५९८. क्षमाप्युधिः -- श्चमाके सागर ॥ २२० ॥

सर्वप्रकृष्टः दिष्टेष्टो हर्षशोकाद्यनाकुलः ।

पित्राज्ञात्यक्तसाभ्राज्यः सपत्रोटयनिर्भय: ॥ २२९ ॥

५९९ सर्वप्रकृष्ट--सबसे श्रेष्ठ, ६००

रिष्टेष्टः- शिष्ट पुस्पेकि इष्टदेव, ६०९ हर्षं -

स्ोका्यनाकुलः --हर्षं और दोक आदिसे विचलित

न होनेबाले, ६०२ पिज्नाज्ञात्यक्तसाप्राज्य:--पिताकी

आज्ञासे समस्त भूमण्डलका साम्राज्य स्याग देनेवाले,

६०३ सपत्नोदयनिर्भयः -- रात्र ओके उदयसे भयभीत

न होनेवाले ॥ २२१ ॥

पर्वतकी कन्दराओ॑को ऐश्वर्य समर्पित करनेवाले -- अपने

निवाससे गुफाओको भी ऐश्वर्य-सम्पन्न बनानेवाले,

६०५ शिवस्पर्धाजराधरः -- रा्करजीकी जटा्मेसि

होड़ रूगानेवाली जटाएँ धारण करनेवाले, ६०६

चित्रकूटप्तरत्राद्ि:--चिक्र्कूटको निवास-स्थल

बनाकर उसे रत्नलमय पर्वते (मेरुगिरि) की महत्ता प्राप्त

करानेवाले, ६०७ जगदीश:--सपम्पूर्ण जगत्‌के ईश्वर,

६०८ खनेचरः- वने विचरनेवाले ॥ २२२ ॥

यश्चेष्टामोघसर्वास्त्रो देवेन््तनयाक्षिहय ।

ब्रहमनदरादिनतैषीको मारीचघ्रो विराधहा ॥ २२३ ॥

६०९ यथेष्टामोघस्वल्िः-- जिनके सभो अख

इच्छानुसार चलनेवाले एवं अचूक हैं, ६९० देवेन्द्र-

तनयाक्षिहा--देवराजके पुत्र जयन्तकी आँख

फोड़नेवाले, ६११ ब्रह्मोनदरादिनतैषीकः-- जिनके

* नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्ननामस्तोज्रका वर्णन «

७९१

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चलाये हुए सींकके बाणको ब्रह्मा आदि देवताओनि भौ

मस्तक झुकाया था, ऐसे प्रभावशाल्त्री भगवान्‌ श्रीराम,

६१२ सारीचघ्नः-- मायामय मृगका रूप धारण

करनेवाले मारीच नामक राक्षसके नाशक, ६९३

खिराधहा--विराधका वध करनेवाले | २२३ ॥

ब्रह्मज्षापहताज्ञेषदण्डकारण्यपावनः ॥

॥ २२४॥

ब्रह्मशापहताहोषदण्डकारण्यपावन:

(शुक्राचार्य)

हजार भयडूर राक्षसॉको मारनेकी दाक्तिसे युक्त एकमात्र

बाण धारण करनेवाले ॥ २२४ ॥

ख़रारिस्थिशिरोहन्ता दृषणणप्नो जनार्दनः ।

जटायुचोऽप्निगतिदोऽगस्त्यसर्वस्वपनत्ररार्‌ ॥ २२५।।

६९१६ रवरारिः- खर नामक राक्षसके दात्र,

६९७ अत्रिशिरोहन्ता--त्रिशिशका वध करनेवाले,

६९८ दृषणप्न:--दूषण नामक राक्षसके प्राण

लेनेवाले, ६९९ जनार्दनः -- भक्तत्परेग जिनसे अध्युदय

एवं निःश्रेयसरूप परम पुरुषार्थकमी यांचना करते हैं,

६२० जटायुषोउप्रिगतिद:---जटायुका दाह-संस्कार

करके उन्हे उत्तम गति प्रदान करनेवाले, ६२९१

अगस्त्यसर्वंस्वमन्त्रार्‌- जिनका नाम महर्षि अगस्त्यका

सर्वस्व एवं मन्त्रोंका राजा है ॥ २२५॥

लीलाधनुष्कोट्यपास्तदुन्दुभ्यस्थिमहाचल: ।

सप्तताल्य्यधाकृष्टध्यस्तपातालदानख: ॥ २२६ ॥

६२२ सीखाधनुष्कोख्पास्तदुन्दुभ्यस्थि-

महाचल्यः- खेल-खेलये ही दुन्दुभि नामक दानवकी

हड्डियोंके महान्‌ पर्वतको धनुषकी नोकसे उठाकर दूर

फेंक देनेवाले, ६२३ सप्ततालव्यधाकृष्टध्वस्त-

पाताल्कदानव:--सात तालवक्षोके वेधसे आकृष्ट

होकर आये हुए पातालवासी दानवका विनादा

करनेवाले ॥ २२६ ॥

सुप्रीयराच्यदोऽहीनमनसैवाभयप्रदः ]

हनुमदुद्रमुख्येकाः समस्तकपिदेहधूत्‌ ॥| २२७ ॥

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