वाचक --दोरनोकी योजनाके लिये जो समर्थ हो, | और उत्तर) दोनों हों, उसे 'बाकोवाक्य' कहते
मनीषीजन उसे "उक्ति" कहते हैं। युक्तिक विषय | हैं। उसके भी दो भेद हैं--'ऋजूक्ति' और
छ: हैं--पद, पदार्थ, वाक्य, वाक्यार्थ, प्रकरण और | 'बक्रोक्ति'। इनमें पहली जो “ऋजूक्ति' है, वह
प्रपञ्च । ' गुम्फना" कहते हैं--रचनाचर्याकों। वह | स्वाभाविक कथनरूपा है। ऋजूक्तिके भी दो भेद
शब्दार्थक्रमगोचरा ', “शब्दानुकारा' तथा “ अर्थानु- | हैं-'अप्रश्नपूर्विका' और ' प्रश्नपूर्विका'। वक्रोक्तिके
पूर्व्वार्थ' --इन तीन भेदोंसे युक्त है॥ २६--३१॥ | भी दो भेद हैं--' भङ्ग-वक्रोक्ति' ओर “काकु-
जिस वाक्यम "उक्ति" और 'प्रत्युक्ति' (प्रश्न | वक्रोक्ति'॥ ३२-३३ ॥
इस प्रकार आदि आण्नेव महापुराणमें “अधिनय और अलकार्रेंका निरृपण” नामक
तीन सौ कयालीसवां अध्याय पूरा हुआ ॥ ३४२॥
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तीन सौ तैंतालीसवाँ अध्याय
शब्दालंकाररोका विवरण
अग्निदेव कहते हैं-- वसिष्ट ! पद एवं वाक्ये | नीचे उसी वर्गके अक्षर तथा 'र ण म न'--ये वर्णं
वर्णोकी आवृत्तिको “अनुप्रासः कहते है । | हस्व स्वरसे अन्तरित होकर प्रयुक्त होते हैं तथा
वृत्त्यनुप्रासके वर्णसमुदाय दो प्रकारके होते हैं-- | दो नकारोंका संयोग भी रहा करता है॥ ३॥
एकवर्णं और अनेकवर्णः ॥ १॥ वर्ग्य वर्णोकी आवृत्ति पाँचसे अधिक बार
एकवर्णगत आवृत्तिसे पाँच वृत्तियाँ निर्मित | नहीं करनी चाहिये । महाप्राण (वकि दूसरे और
होती है- मधुरा, ललिता, प्रौढा, भद्रा तथा | चौथे अक्षर) और ऊष्मा (श षस ह) इनके
परुषा) ॥ २॥ संयोगसे युक्त उत्तरोत्तर लघु अक्षरवाली रचना
मधुरावृत्तिकी रचनामें वर्गान्ति पञ्चम वर्णक | मधुरा कही गयी है ॥४॥
वियोनि
१. अनुप्रासका लक्षण अस्विदेवने ' स्यादावृततिरनुरास्ो यणनिं पदवाक्ययोः ।'--इस प्रकार कहा ह । इसीका आधार लेकर आचार्यं
मम्मटने लिखा है कि " सरूपवर्णधिन्यासमनुप्रासं प्रचक्षते ।' ( पूर्वे विद्वांस इति शेष: ।) 'वर्णसाम्यमनुप्रास: ।' (का०प्र० ९।७९), ' अनुप्रासः
शब्दसाम्यम्।' ( सा द० १०॥ ३)-ये मम्मट और विश्रनायकथित लक्षण भी उक्त अभिप्रायके ही पोषक है ।
२. 'नाट्यशास्त्र' १६। ४० में भरतने उपमा, दोपक, रूपक और यमक -ये चार् ही अलंकार माने है । व्यासजीने अनुप्रासका उल्लेख
किया है। भामहते अपनेसे पूर्व अनुप्रासको मान्यता स्वौकार कौ है । 'वृत्त्वनुप्रास'के अग्निपुराणोकत लक्षणका भाव लेकर भोजराजने
"सरस्वतीकण्ठाभरण ' में इस प्रकार लिखा है--
मुहुरावर्त्यमानेषु यः स्ववर्ग्येषु बर्तते। का्व्यव्यापों स संदर्भो वृत्तिरित्यभिधौयत ॥ (२। ७८)
आचार्य मम्मटते 'एकस्याप्यसकृत्पर: '--इस सूत्रभूत वाक््यके द्वारा अभ्निपुराणोक्त लक्षणकी ओर हौ संकेत किया है। इसी भावकों
कविराज विश्वनाथने तिम्ताद्/ित शब्दो विशद किया है ~
अनेकस्वैकधा साप्यमसकृद्ाप्यनेकधा । एकस्य सकृदप्येष चृत्त्यनुप्रास उच्यते ॥ ( १०।.४)
३. अग्निपुराणमे जहाँ पाँच वृत्तियोंका उल्लेख है, वहाँ परवती आलोचकोनि अन्यात्य वृत्तियोंका भी उत्प्रेक्षण किया है। भोजराजने
वृत्ति'के तोन गुण बताये हैं--सौकुमार्य, प्रौदि और मध्यमत्व। साथ हो वृत्तिके बारह भेदोंका उल्लेख किया है, जिनके नाम इस प्रकार
हैं--गम्भीरा, ओजस्विनी, प्रदा, मधुरा, निष्ठुर, श्लथा, कठोर, कोमला, मिश्रा, परा, ललिता और अमिता। अग्निपुरानकथित पचो
यृत्तियाँ भी इनके अन्तर्गत है । भटके स्थाने कोमला युत्ति समझनी चाहिये ।
४, भोजराजने " मधुरा युत्ति" के उदाहरणके रूप्ये निम्नाकलित श्लोक प्रस्तुत किया है--
किञ्जल्कसङ्गिशिजानभृङ्गलाञ्छितचस्पकः । अयं मधुरुपैति त्वां चण्डि पङ्कजदन्तुरः ॥ (२। १९३)