५१८
# अर्जयस्व इषीकेङं यदीच्छसि परं पदम् +
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
#&#००##७#०*६२%०*७**०*%६##०*९६००७०७*#*९६०९##***९००**९०९७००#%*#रह० २ >»%०००००००००००००००७##कब्कक ५१७०० ० ७#००»०००७७# ७०७ कक
महान् अभ्युदबसे शोभा पानेवाली सीताजी तो आपके
बिना क्षणभर भी जीवित नहीं रह सकतीं । इसलिये मेरा
अनुरोध तो यही है कि आप पतिव्रता श्रीसीताके साथ
रहकर इस बिशाल राज्य-लक्ष्मीकी रक्षा कीजिये।'
भरतके ये वचन सुनकर वक्ताओंमें श्रेष्ठ, परम
धार्मिक श्रीरघुनाथजों इस प्रकार बोले--' भाई ! तुम जो
कुछ कह रहे हो, वह धर्मसम्मत और युक्तियुक्त है।
परन्तु इस समय मैं जो बात कह रहा हूँ, उसीको मेरी
आज्ञा मानकर करो । मैं जानता हूँ मेरी सीता अभिद्वारा
शुद्ध, पवित्र॒ ओर लोकपूजित है, तथापि मैं
लोकापवादके कारण आज उसका त्याग करता हूँ।
इत्सय तुम जनककिदोरौको वने ले जाकर छोड़
आओ ।' श्रीरामका यह आदेदा सुनते हो भरतजौ
मूर्च्छित होकर पुथ्वौपर भिर पडे ।
== औ ==
सीताका अपवादं करनेवाले धोबीके पूर्वजन्यका वृत्तान्त
वात्स्यायनजीने पूछा -- स्वामिन् ! जिनको उत्तम
कीर्ति सम्पूर्ण जगत्को पवित्र करनेवाली है, उन
जानकौदेवीके प्रति उस धोबीने निन्दायुक्त वचन क्यों
कहे ? इसका रहस्य बतलाइये ।
होषजीने कहा--मिथिल्म्म नामकी महापुरीमें
महाराज जनक राज्य करते थे। उनका नाम था
सीरध्वज । एक बार ये यज्ञके लिये पृथ्वी जोत रहे थे ।
उस समय चौद मुंहबाली सीता (फाल्के घैंसनेसे
ज
बनी हुई गहरी रेखा) के द्वारा एक कुमारी कन्याका
प्रादुर्भाव हुआ, जो रतिसे भी बढ़कर सुन्दर थी। इससे
राजाको बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने भुवनमोहिनी
शोभासे सम्पन्न उस कन्याका नाम सीता रख दिया । परम
सुन्दरौ सीता एक दिन सखियोंके साथ उद्यानमें खेल रही
थीं। वहाँ उन्हे शुक पक्षीका एक जोड़ा दिखायी दिया,
¢ ¬+ ६ ८ (१ ६2 7
यैटकर् इस प्रकार बोल रहे थे--'पृथ्वीपर श्रीराम
नामसे प्रसिद्ध एक बड़े सुन्दर राजा होंगे। उनकी
महारानी सीताके नामसे विख्यात होंगी। श्रीरामचन्द्रजी