* श्रीकृष्णजन्मखण्ड * ५६५
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दक्षके प्रति बड़ा रोष था। सतीके मनमें पिता धारण करना असम्भव है।' यह आकाशवाणी
आदिके प्रति मोह था; इसलिये उन्होंने यत्रपूर्वक सुनकर यौवनके गव॑से भरी हुई पार्वती हँसकर
पतिदेवको उस यज्ञम चलनेके लिये समज्ञाया। | चुप हो रहीं । वह मन-ही-मन सोचने लगीं कि
जब किसी तरह उन्हें वहाँ ले जानेमे वे समर्थ |“ जो मेरे दूसरे जन्मकी अस्थि और भस्मको धारण
न हो सकी, तब स्वयं चञ्चल हो उठीं और | करते हैं; वे इस जन्ममें मुझे सयानी हुई देख
पतिकी आज्ञा प्राप्त किये बिना ही दर्पवश पिताके | कैसे नहीं ग्रहण करेगे । जो चतुर होकर भी मेरे
घर चली आयीं। पतिके शापसे वहाँ उनका दर्प- | शोकसे समूचे ब्रह्माण्डमें भटकते फिरे; वे ही
भङ्ग हुआ। पिताने उनसे बाततक नहीं कौ । | मुञ्च परम सुन्दरीको अपनी आँखोंसे देख लेनेपर
वाणीमात्रसे भी पुत्रीका सत्कार नहीं किया। इतना | क्यों नहीं ग्रहण करेगे ? जिन कृपानिधानने मेरे
ही नहीं, उन्हें बहौ पतिकौ निन्दा भी सुननी | लिये दक्षयज्ञका विध्वंस कर डाला था; वे अपनी
पड़ी। उसे सुनकर स्वाभिमानवश सतीने अपने | जन्म-जन्मकौ पत्नी मुझ पार्वतीको क्यो नहीं ग्रहण
शरीरको त्याग दिया। करेंगे? पूर्वजन्मसे ही जो जिसकी पत्री है और
प्रिये! इस प्रकार सतीके दर्प -भङ्गका वृत्तान्त जिसका जो पति है, उन दोनोंमें यहाँ भेद कैसे
कहा गया। अब तुम उनके जन्मान्तर तथा दर्प- | हो सकता है? क्योंकि प्रारब्धको कोई पलट नहीं
दलनकी कथा सुनो। सतीने शीघ्र ही गिरिराज | सकता।'
हिमालयकी पत्री मेनाके गर्भसे जन्म ग्रहण | अत्यन्त अभिमानके कारण अपनेको समस्त
किया। शिवने प्रेमवश सतीकी चिताका भस्म ओर | रूप ओर गुर्णोका आधार मानकर साध्वी शिवाने
उनकी अस्थिया ग्रहण कं । अस्थियोंकी तो माला | तप नहीं किया। उन्होंने शिवको ईश्वर नहीं
बनायी और भस्मसे अङ्गरगका काम लिया । वे | समझा। "समस्त सुन्दरियोंमें मुझसे बढ़कर सुन्दरी
प्रेमवश बार-बार सतीको याद करते ओर उनके | दूसरी कोई नहीं है '--यह धारणा हदये लेकर
विरहमें इधर-उधर घूमते रहते थे। उधर मेनाने | शिवादेवी गर्ववश तपस्यामें नहीं प्रवृत्त हुई। वे
देवीको जन्म दिया। उनकी आकृति बड़ी ही | यहौ सोचती थीं कि पुरुष अपनी स्ट्रियोंके रूप,
मनोहर थी। विधाताकी सृष्टिमे गिरिराजनन्दिनीके | यौवन तथा वेशभूषाका ग्राहक है । शिव मेरा नाम
लिये कहीं कोई उपमा नहीं थी। गुणोंकी तो | सुनते ही बिना तपस्याके मुझे ग्रहण कर लेंगे।
वे जननी ही हैं; अतः सभी और सब प्रकारके | मनमें यह विश्वास लेकर गिरिजा हिमवान्के घरमें
सदुणोंको धारण करती हैं। समस्त देवपत्रियाँ रहती थीं और दिन-रात सखी-सहेलियोंके बीच
उनकी सोलहवों कलाके बराबर भी नहीं हैं। खेल-कूदमें मतवाली रहा करती थीं। इसी समय
जैसे शुक्लपक्षमें चन्द्रमाकी कला बढ़ती है, उसी | शीघ्रतापूर्वक दूतने गिरिराजके भवनमें आकर
तरह हिमालयके घरमे वे देवी दिनोंदिन बढ़ने |दोनों हाथ जोड़ उनके सामने मधुर वाणीमें कहा।
लगीं । जब उन्होने युवावस्थामें प्रवेश किया, तब | दूत बोला--शैलराज! उठिये, उठिये।
उन जगदम्बाको सम्बोधित करके आकाशवाणीने | अक्षयवटके पास जाइये । वहाँ वृषभवाहन महादेवजी
कहा--'शिवे! तुम कठोर तपस्याद्वारा भगवान् | अपने गणोंके साथ पधारे हैं। महाराज! आप
शिवको पति-रूपमें प्राप्त करों; क्योंकि तपस्याके भक्तिभावसे मस्तक झुका उन्हें मधुपर्क आदि
बिना ईश्वरकों पाना अथवा उनके अंशसे गर्भ | देकर उन इन्द्रियातीत देवेश्वरका पूजन कौजिये।