पात्तालखण्ड ] , युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा +
राजाके सामने आये। उन्हें आते देख राजाने आठ
बाणोंसे बींध डाला । यह देख बलवान् पुष्कलने राजापर
कई हजार याणोंका प्रहार किया । दोनों एक-दूसरेपर मन्त्र-
पाठपूर्वक दिव्यास्रोंका प्रयोग करते और दोनों ही शान्त
करनेवाले अर्क प्रयोग करके एक-दूसरेके चलाये
हुए अख्लॉका निवारण करते थे । इस प्रकार उन दोनोमें
बड़ा घमासान युद्ध हुआ, जो बीरोंके रॉगटे खड़े कर
देनेवाला था। तब राजाको बड़ा क्रोध हुआ और उन्हेनि
एक नाराचका प्रयोग किया । पुष्कल उसको काटना ही
चाहते थे कि वह नाराच उनकी छातीमें आ लगा। चे
महान् तेजस्वी थे, तो भी उसका आघात न सह सके,
उन्हें मूर्छछा आ गयी!
पुष्कलके गिर जानेपर शात्रुओंकों ताप देनेवाले
शब्रुघ्नको बड़ा क्रोध हुआ। ले रथपर बैठकर राजा
सुरथके पास गये और उनसे कहने छगे--'राजन् !
तुमने यह बड़ा भारी पराक्रम कर दिखाया, जो
पवनकृमार हनुमानजीकों बाँध लिया। अभी ठहरो, मेरे
वीरोंको रण-भूमिमें गिराकर तुम कहाँ जा रहे हो । अब
मेरे सायकॉकी मार सहन करो ।' दात्रुघ्रका यह वीरोचित
भाषण सुनकर बलवान् राजा सुरथ मन-ही-मन
श्रीरामचन्द्रजीके मनोहर चरण-कमत््रैका चिन्तन करते
हुए बोले--“बीरवर ! मैंने तुम्हारे पक्षके प्रधान वीर
हनुपान् आदिको रणमें गिरा दिया; अब तुम्हें भो
समयङ्गणमे सुल्म्रकँगा । श्रीरघुनाथजीका स्परण करो, जो
यहाँ आकर तुम्हारी रक्षा करेंगे; अन्यथा मेरे सामने
युद्धमें आकर जोवनकी रक्षा असम्भव है ।' ऐसा कहकर
राजा सुरथने दात्रुत्रको हजारों बाणोंसे घायल किया।
उन्हें बाण-समूहोंकों बयौझर करते देख शत्रुप्नने
आग्रेयास््रका प्रयोग किया। वे त्रके बाणोंकों दग्घ
करना चाहते थे। शतन छोड़े हुए उस अख्बको राजा
सुरधने बारुणाख्रके द्वारा बुझा दिया और करोड़ों बाणोसे
उन्हें घायल किया। तब जझात्रुघ़ने अपने धनुषपर मोहन
नामक महान् अस्क्का सन्धाने किया। वह अद्भुत असन
समस्त वीरको मोहिते करके उन्हें निद्रामें निमप्र कर
देनेवाला था। उसे देख राजाने भगलान्ूका स्मरण करते
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हुए कहा--मैं श्रीरामचनद्रजीका स्मरण करके ही मोहित
रहता हूँ, दूसरी कोई वस्तु मुझे मोहनेवाली नहीं जान
पड़ती । माया भी मुझसे भय खाती है।' वीर राजाके
ऐसा कहनेपर भी झत्रुघ्नने वह महान् अख उनके ऊपर
छोड़ ही दिया। किन्तु राजा सुरथके बाणसे कटकर वह
रण-भ्ूमिमें गिर पड़ा । तदनन्तर, सुरथने अपने घनुषपर
एक प्रज्वल्तित बाण चढ़ाया और हात्रुघ्नको लक्ष्य करके
छोड़ दिया। झत्रुप्नने अपने पास पहुँचनेसे पहले उसे
मार्गमें हो काट दिया, तो भी उसका फलवा अग्रिम
भाग उनकी छातीमें धैंस गया । उस बाणके आघातसे
मूच्छित होकर दात्र रथपर गिर पड़े; फिर तो सारी सेना
हाहाकार करती हुई भाग ची । संग्राममें रामभक्त
सुरथकी विजय हुई। उनके दस पुत्रेनि भी अपने साथ
लड़नेबाले दस बौरोंको मूर्च्छित कर दिया था। ये
रणभूमिमें ही कहीं पड़े हुए थे।
तदनन्तर, सुग्रीवने जब देखा कि सारी सेना भाग
गयी और स्वामी भी मूर्च्छित होकर पड़े हैं, तो वे स्वयं
हो राजा सुरथसे युद्ध करनेके लिये गये और बोले---
"राजन् ! तुम हमारे पक्षके सब लोगॉको मूर्छित करके
कहाँ चले जा रहे हो आओ और हीघ्र ही मेरे साथ
युद्ध करो।' यों कहकर उन्होंने डालियॉसहित एक
विशाल वृक्ष उखाड़ लिया और उसे बलपूर्वक राजाके
मस्तकपर दे माय । उसकी चोट खाकर महाबली नरेदाने
एक बार सुप्रीवकी ओर देखा और फिर अपने धनुषपर
तीखे बराणोंका सन्धान करके अत्यन्त बल तथा पौरुषका
परिचय देते हुए रोषे भरकर उनकी छातोमें प्रहार
किया । किन्तु सुग्रीवने हँसते-हैंसते उनके चलाये हुए.
सभी बाणोंकों नष्ट कर दिया। इसके बाद वै राजा
सुरथको अपने नखेसि विदीर्ण करते हुए पर्वतो, झिखरों,
वृक्षों तथा हाधिरयोको फेंक-फेंककर उन्द चोट पहुँचाने
खगे । तब सुरथने अपने भयङ्कर रामाखसे सुग्रीवको भी
तुरंत ही बाँध च्छ्रा । बन्धनमें पड़ जानेपर कपिराज
सुप्रीवको यह विश्वास हो गया कि राजा सुरथ वास्तवमें
श्रीरामचन्द्रजीके सच्चे सेवक हैं।
इस प्रकार महाराज सुरथने विजय प्राप्त की। वे