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* अर्जयस्व हृषीकेश यदीच्छसि परं पदम् +
{ संक्षिप्त पद्मपुराण
१9७७७ ०७७ ५७७७७ ०992१७४. २२१११.१११११ ११०२९१०२ ७०७ ७४७७७ ७७७४७ ७७७२४ ७ ७७७४७ ७७७ ७७४७2 20०७ ७७७७१७७७७७०७७ ७०७०७ ७७७७७ ७
हाहाकर करके चीख उठे और हनुमानजीने चम्पकके
पाशमें धे हुए पुष्कलको छुड़ा लिया।
चम्पकको पृथ्वीपर पड़ा देख बलखयान् राजा सुरथ
पुत्रके दुःखसे व्याकुल हो उठे और रथपर सवार हो
हनुमानजीके पास गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने कहा--
"कपिश्रेष्ठ ! तुम धन्य हो ! तुम्हारा बल और पराक्रम
महान् हैं; जिसके द्वारा राक्षसॉंकी पुरी रङ्कापे तुमने
श्रीरघुनाथजीके बड़े-बड़े कार्य सिद्ध किये हैं। निःसन्देह
तुम श्रीरामचनद्रजीके चरणोंके सेवक और भक्त हो।
तुम्हारी वीरताके लिये क्या कहना है। तुमने मेरे बलवान्
पुत्र चम्पकको रण-भूमिमें गिरा दिया है । कपीश्वर ! अब
तुम सावधान हो जाओ। मैं इस समय तुम्हें बाँधकर
अपने नगरमे ले जाऊँगा। मैंने बिलकुल सत्य कहा है ।'
हतुमानजीने कहा--राजन् ! तुम श्रीरघुनाथजीके
चरणोंका चिन्तन करनेवाले हो और मैं भी उत्हींका
सेवक हूँ। यदि मुझे बाँध लोगे तो मेरे प्रभु बलपूर्वक
तुम्होरे हाथसे छुटकारा दिलायेंगे। वौर ! तुम्हारे मनमें
जो बात है, उसे पूर्ण करो । अपनी प्रतिज्ञा सत्य करो।
वेद् कहते हैं, जो श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण करता है, उसे
कभी दुःख नहीं होता।
शेषजी कहते हैं--उनके ऐसा कहनेपर राजा
सुरथने पवनकुमारकी बड़ी प्रदौसा की और सानपर
चढ़ाकर तेज किये हुए भर्यकर बा्णोंद्वारा उन्हें अच्छी
तरह घायल किया। वे बाण हनुमानजीके शरीरसे रक्त
निकाल रहे थे; तो भी उन्होंने उनकी परवा न की और
राजाके घनुषको अपने दोनों हाथोंसे पकड़कर तोड़
डाल्छा । हनुमानजीके द्वारा अपने धनुषको प्रत्यक्नासहित
टा हुआ देख राजाने दूसरा धनुष हाथमे लिया। किन्तु
पवनकुमारने उसे भी छीनकर क्रोधपूर्वक तोड़ डाल्म।
इस प्रकार उन्होंने राजाके अस्सी धनुष खण्डित कर दिये
तथा क्षण-क्षणपर महान् रोषे भरकर वे बारम्बार गर्जना
करते थे। तय राजाके क्रोधकी सीमा न रही । उन्होंने
भयंकर राक्ति हाथमे त्तरे । उस शक्तिसे आहत होकर
हनुमानजी गिर पड़े, किन्तु थोड़ी ही देरमें उठकर खड़े हो
गये। फिर अत्यन्त क्रोधे भर उन्होंने राजाका रथ पकड़
लिया और उसे लेकर बड़े वेगसे आकाझमें उड़ गये।
ऊपर जाकर बहुत दूरसे उन्होंने रथको छोड़ दिया और
वह रथ धरतीपर गिरकर क्षणभरमें चकनाचुर हो गया ।
राजा दूसरे रथपर जा चढ़े और बहे वेणसे हनुमान्जीका
सामना करनेके लिये आये। किन्तु क्रोधमें भरे हुए
पवनकुमारने तुरंत ही उस रथकों भी चौपट कर डाला ।
इस प्रकार उन्होंने राजाके उनचास रथ नष्ट कर दिये।
उनका यह पराक्रम देखकर राजाके सैनिकों तथा स्वयै
राजाकों भी बड़ा विस्मय हुआ। वे कुपित होकर
बोले--'बायुनन्दन ! तुम. घन्य हो ! कोई भी पराक्रमी
ऐसा कर्म न तो कर सकता है और न करेगा । अब तुम
एक क्षणके लिये ठहर जाओ, जबतक कि मैं अपने
धनुषपर प्रत्यन्चा चढ़ा रहा हूँ। तुम वायुदेवताके सुपुत्र
श्रीरघुनाथजीके चरण-कमस्प्रेंक चजञ्जरीक हो. [अतः
मेरी बात मान लो] ।' ऐसा कहकर रोषमें भरे हुए राजा
सुरथने अपने धनुषपर प्रत्यञ्च चढ़ायी और भयङ्कर
बाणमें पाशुपत अस्स्का सन्धान किया। स्पेगोने देखा
हनुमानजी पाशुपत अख्मसे बैंध गये। किन्तु दूसरे हो
क्षण उन्होंने मन-ही-मन भगवान् श्रीरामका स्मरण करके
उस बन्धनको तोड़ डाला और सहसा मुक्त होकर ये
राजासे युद्ध करने लगे। सुरथने जब उन्हें बन्धनसे मुक्त
देखा तो महायलयान् मानकर ब्रह्मास्लका प्रयोग किया।
परन्तु महावीर पवनकुमार उस अख्मको हैंसते-हैंसते
निगल गये। यह देख राजाने श्रीरघुनाथजीका स्मरण
किया। उनका स्मरण करके उन्होंने अपने धनुषपर
रामास्त्रका प्रयोग किया और हनुमानजीसे कहा--
'कपिश्रेष्ठ अब तुम रै गये।' हनुमानजी बोले--
"राजन् ! क्या करूँ, तुमने मेरे स्वामीके अस्रसे ही मुझे
बंधा है, किसी दूसरे प्राकृत अख्से नही; अतः मैं
उसका आदर करता हँ । अब तुम मुझे अपने नगरमे ले
चलो मेरे प्रभु दयाके सागर हैं; वे स्वयं ही आकर मुझे
छुड़ायेंगे।'
हनुमानूजीके बाँधे जानेपर पुष्कलं कुपिते हो