उत्तरभाग
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अपने पितरोंका उद्धार कर देता है। निःक्षीरा- | उनके नामपर कुण्डपृषठतीर्थं विख्यात ह आ।
संगममें स्नान करनेवाले मनुष्यके सारे पाप धुल
जाते हैं। रामपुष्करिणीमें श्राद्ध करनेवाला पुरुष
अपने पितरौको ब्रह्मलोके पहुंचाता है । वशिष्ठतीर्थमें
वशिष्ट श्वरको प्रणाम करके मनुष्य अश्वमेध-यज्ञके
पुण्यका भागी होता है । धुनेकारण्यमें कामधेनु-
पदोंपर खान करके पिण्ड देनेवाला पुरुष वहाँके
देवताको नमस्कार करके पितरोँको ब्रह्मलोकमें
पहुँचाता है। कर्दमालतीर्थमें, गयानाभिमें और
मुण्डपृष्ठके समीप खान करके श्राद्ध करनेवाला
पुरुष अपने पितर्योको स्वर्गलोकमें पहुँचा देता है।
चण्डीदेवीको नमस्कार तथा फल्गुचण्डीश नामक
संगमेश्वरका पूजन करनेसे भी पूर्वोक्त फलकी ही
प्राप्ति होती है। गयागज, गयादित्य, गायत्री,
गदाधर,गया और गयाशिर-ये छः प्रकारकी गया
मुक्ति देनेवाली है । श्राद्धकर्ता जिस-जिस तीर्थमें
जाय, वहीं जितेनद्धियभावसे आदिगदाधरका ध्यान
करते हुए ब्राह्मणके कथनानुसार श्राद्ध एवं पिण्डदान
करे। तदनन्तर भगवान् जनार्दनका विधिपूर्वक पूजन
करके दही और भातका उत्तम नैवेद्य अर्पण करे
तत्पश्चात् पिण्डदान करके भगवत्प्रसादसे ही जीवननिर्वाह
करे। दैत्यके मुण्डपृष्ठपर वह शिला स्थित है,
इसलिये मुण्डपृष्ठ नामक पर्वत पितरोंको ब्रह्मतोक
देनेवाला है। श्रीरामचन्द्रजीके वनमें जानेके बाद
उनके भाई भरत उस पर्वतपर आये थे। उन्होंने
पिताको पिण्ड आदि देकर वहाँ रामेश्वरको स्थापना
की थी। जो एकाग्रचित्त होकर वहाँ खान करके
रमेश्वरको तथा राम और सीताको नमस्कार करता
और श्राद्ध एवं पिण्डदान देता है, वह धर्मात्मा
अपने पितरोंके साथ भगवान् विष्णुके लोकमें जाता
है । शिलाके दक्षिण हाथमें स्थापित मुण्डपृष्ठती्धकि
समीप श्राद्ध आदि करनेसे मनुष्य अपने समस्त
पितरोंको ब्रह्मलोक पहुँचा देता है । कुण्डने सीतागिरिके
दक्षिण पर्वतपर बड़ी भारी तपस्या को थी, अतः
पुण्यमय मतङ्गपदमे पिण्ड देनेवाला पुरुष अपने
पितरोंको स्वर्गमें पहुँचा देता है। शिलाके बारें
हाथमें उद्यन्तक गिरिकी स्थापना हुई। यहाँ महात्मा
अगस्त्यजीने उदयाचलको ले आकर स्थापित किया
था। वहाँ पिण्ड देनेवाला पुरुष अपने पितरोंको
ब्रह्मलोक भेज देता है। अगस्त्यजीने अपनी तपस्याके
लिये वहाँ उद्यन्तक नामक कुण्डका निर्माण किया
था। यहाँ ब्रह्माजौ अपनी देवी सावित्री और
सनकादि कुमारोंके साथ विराजमान हैं। हाहा, हूहू
आदि गन्धर्वोने वहाँ सड्रीत और वाद्यका आयोजन
किया था। अगस्त्यतीर्थमें स्नान करके मध्याहकालमें
सावित्रीकी उपासना करनेपर पुरुष कोटि जन्मोंतक
धनाढ्य तथा वेदवेत्ता ब्राह्मण होता है । अगस्त्यपदमें
स्नान करके पिण्ड देनेवाला पुरुष पितरोको स्वर्गकी
ग्राप्ति कराता है। जो मनुष्य ब्रह्मयोनिमे प्रवेश करके
निकलता है, वह योनिसंकटसे मुक्त हो पएत्रह्म
परमात्माको प्राप्त होता है । गयाकुमारको प्रणाम
करके मनुष्य ब्राह्मणत्व पाता है। सोमकुण्डमें खान
आदि करनेसे वह पितरोंको चन्द्रलोककी प्राप्ति
कराता है। काकशिलामें कौओंके लिये दी हुई बलि
क्षणभरमें मोक्ष देनेवाली है। स्वर्गद्वारेध्वरको नमस्कार
करके मनुष्य अपने पितरोंको स्वर्गसे ब्रह्मलोककों
श्रेज देता है। आकाश-गड्जामें पिण्ड देनेवाला पुरुष
स्वयं निर्मल होकर पितरोंकों स्वर्गलोकमें भेज देता
है। शिलाके दाहिने हाथमें धर्मराजने भस्मकूट
धारण किया था। अतः वहाँ महादेवजीने अपना
वही नाम रखा है। मोहिनी ! जहाँ भस्मकूट पर्वत
है, वहीं भस्म नामधारी भगवान् शिव हैं। जहाँ वर
है वहाँ वटेश्वर ब्रह्माजी स्थित हैं। उनके सामने
रुक्मिणी-कुण्ड है और पश्चिममें कपिला नदी है।
नदीके तटपर कपिलेश्वर महादेव हैं, वहीं उमा और
सोमकी भेंट हुई थी। मनुष्य कपिलामें स्नान करके
कपिलेश्वरकों प्रणाम एवं उनका पूजन करे। वहाँ