उनके चरणोंकी धारणा करते हैं और मैं तो उन्हें प्रत्यक्ष पा
जाऊँगा ओर लोट जाऊँगा उनपर। उन दोनोंके साथ ही
उनके वनवासी सखा एक-एक ग्वालबालके चरणोंको भी
वन्दना करूँगा॥ १५॥ मेरे अहोभाग्य ! जब मैं उनके
चरणकमलोंमें गिर जाऊँगा, तब क्या वे अपना करकमल
मेरे सिरपर रख देंगे ? उनके वे करकमल उन लोगोंको
सदाके लिये अभयदान दे चुके हैं, जो कालरूपी साँपके
भयसे अत्यन्त घबड़ाकर उनकी शरण चाहते और शरणमें
आ जाते हैं ॥ १६ ॥ इन्द्र तथा दैत्यगाज बलिने भगवानके
उन्हीं करकमलोंमें पूजाकी भेंट समर्पित करके तीनों
लोकोका प्रभुत्व--इन्द्रपद प्राप्त कर लिया। भगवानके
उन्हीं करकमलोंने, जिनमेंसे दिव्य कमलकी-सी सुगन्ध
आया करती है, अपने स्पर्शसे रासलीलाके समय
ब्रजयुवतियोंकी सारी थकान मिटा दी थी॥ १७॥ मैं
कंसका दूत हूँ। उसीके भेजनेसे उनके पास जा रहा हूँ।
कहीं वे मुझे अपना शत्रु तो न समझ बैठेंगे ? राम-राम !
वे ऐसा कदापि नहीं समझ सकते । क्योंकि वे निर्विकार हैं,
सम हैं, अच्युत है, सारे विश्वके साक्षी हैं, सर्वज्ञ हैं, वे
चित्तके बाहर भी हैं और भीतर भी । वे क्षेत्रज्षरूपसे स्थित
होकर अन्तःकरणकी एक-एक चेष्टाको अपनी निर्मल
ज्ञानदृष्टिके द्वारा देखते रहते हैं॥ १८ ॥ तब मेरी शङ्खा
व्यर्थ है। अवश्य ही मैं उनके चरणोंमें हाथ जोड़कर
विनीतभावसे खड़ा हो जाऊंगा । वे मुसकराते हुए दयाभरी
लिण्ध दृष्टिसे मेरी ओर देखेंगे। उस समय मेरे
जन्म-जन्मके समस्त अशुभ संस्कार उसी क्षण नष्ट हो
जागे और मै निःशङ्क होकर सदाके लिये परमानन्दमे
मगन हो जाऊंगा ॥ १९॥ मैं उनके कुटुम्बका हूँ और
उनका अत्यन्त हित चाहता हँ । उनके सिवा और कोई मेरा
आराध्यदेव भी नहीं है। ऐसी स्थितिमें वे अपनी
ल॑बी-ल॑बी बाँहोंसे पकड़कर मुझे अवश्य अपने हदवसे
लगा लेंगे। अहा ! उस समय मेरी तो देह पवित्र होगी ही.
बह दूसरोंको पवित्र करनेवाली भी बन जायगी और उसी
समय--उनका आलिङ्गन प्राप्त होते ही--मेंरे कर्ममय
बन्धन, जिनके कारण मैं अनादिकालसे भटक रहा हूँ, टूट
जायैंगे॥ २० ॥ जब वे मेरा आलिङ्गन कर चुकेंगे और
मैं हाथ जोड़, सिर झुकाकर उनके सामने खड़ा हो
* दशम स्कन्ध «
जे निनेज मै मिमे तमे औ के के मैन मै मै औ कहे हे औ मै नैज औ औ कै के औ के के के
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जाऊँगा,तब वे मुझे 'चाचा अक्रूर !" इस प्रकार कहकर
सम्बोधन करेंगे ! क्यों न हों, इसी पवित्र और मधुर
यशका विस्तार करनेके लिये ही तो वे लीला कर रहे है ।
तब मेरा जीवन सफल हो जायगा। भगवान् श्रीकृष्णने
जिसको अपनाया नहीं, जिसे आदर नहीं दिया--उसके
उस जन्मको, जीवनको घिक्वार है ॥ २१ ॥ न तो उन्हें कोई
प्रिय है और न तो अप्रिय। न तो उनका कोई आत्मीय
सुहृद् है ओर न तो शत्रु। उनकी उपेक्षाका पात्र भी कोई
नहीं है। फिर भी जैसे कल्पवृक्ष अपने निकट आकर
याचना करनेवालॉको उनकी मैँहमाँगी वस्तु देता है, वैसे
ही भगवान् श्रीकृष्ण भी, जो उन्हें जिस प्रकार भजता है,
उसे उसी रूपमे भजते है वे अपने प्रेमी भक्तोंसे ही पूर्ण
प्रेम करते हैं॥ २२ ॥ मैं उनके सामने विनीत भावसे सिर
झुकाकर खड़ा हो जाऊँगा और बलरामजी मुसकराते हुए
मुझे अपने इृदबसे लगा लेंगे और फिर मेरे दोनों
हाथ पकड़कर मुझे घरके भीतर ले जायैंगे। वहाँ सब
प्रकाससे मेण सत्कार करेंगे। इसके बाद मुझसे
पूछेंगे कि 'कंस हमारे षरवालोकिं साथ कैसा व्यवहार
करता है ?' ॥ २३॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं--परीक्षित् ! श्रफल्कनन्दन
अक्रूर मार्गमे इसी चिन्तनमें डूबे-डूबे रथसे नन्दर्गांव
पहुँच गये और सूर्य अस्ताचलपर चले गये ॥ २४॥
जिनके चरणकमलकी रजक सभी लोकपाल अपने
किरीटोंके द्वारा सेवन करते है, अक्रूरजीने गोष्ठमें उनके
चरणचिह्नोंके दर्शन किये। कमल, यव, आदि
असाधारण चिहकि द्वारा उनकी पहचान हो रही थी और
उनसे पृथ्वीकी शोभा बढ़ रही थी॥२५॥ उन
चरणचिदकि दर्शन करते ही अक्रूरजीके हृदयमें इतना
आह्वाद हुआ अपनेको सैंभाल न सके, विह्वल
हो गये। प्रेमके आवेगसे उनका रोम-रोम खिल उठा
हमारे प्रभुके चरणोंकी रज
है' ॥ २६॥ परीक्षित्! कंसके सन्देशसे लेकर
यहाँतक अक्रूरजीके चित्तकी जैसी अवस्था रही है, यही
जीवॉके देह धारण करनेका परम लाभ है। इसलिये