उत्तरभाग
गल्जाजीके तटपर रहता और सदा गद्गाजीका जल
पीता है, वह पुरुष पूर्वसंचित पातकोंसे मुक्त हो
जाता है। जो गड्भाजीका आश्रय लेकर नित्य
निर्भव रहता है, वही देवताओं, ऋषियों और
मनुष्येकि लिये पूजनीय है १ । प्रभासतीर्थमें सूर्यप्रहणके
समय सहस्र गोदान करनेसे मनुष्य जो फल पाता
है, वह गङ्गाजौके तटपर एक दिन रहनेसे ही
मिल जाता है। जो अन्य सारे उपायोंकों छोड़कर
मोक्षकी कामना लिये दृढ़निश्चयके साथ गङ्गाजीके
तटपर सुखपूर्वक रहता है, वह अवश्य ही
मोक्षका भागी होता है, विशेषतः काशीपुरीमें
गङ्गाजी तत्काल मोक्ष देनेवाली हैँ । यदि जौवनभर
प्रतिमासकी चतुर्दशी और अष्टमी तिथिको सदा
गङ्गाजीके तरर निवास किया जाय तो वह उत्तम
सिद्धि देनेवाला है। मनुष्य सदा कृच्छर और
चान्द्रायण करके सुखपूर्वक जिस फलका अनुभव
करता है, वही उसे गङ्खाजीके तटपर निवास
करनेमात्रसे मिल जाता है । ब्रह्मपुत्र ! इस लोकमें
गङ्गाजीकी सेवामें तत्पर रहनेवाले मनुष्यको आधे
दिनके सेवनसे जो फल प्राप्त होता है, वह सैकड़ों
यज्ञोंद्वारा भी नहीं मिल सकता। सम्पूर्णं यज्ञ, तप,
दान, योग तथा स्वाध्याय-कर्मसे जिस फलको
१.मनोवाकायजैर्रस्त: पापै्बहुविधरपि
गन्जातोयाभिषिक्तां तु भिक्षामश्राति यः
हिमवद्विध्यसद्शा
धैरपि ।
4:
प्राप्ति होती है, वही भक्तिभावसे गङ्गाजीके तटपर
निवास करनेमात्रसे मिल जाता है । सत्य-भाषण,
नैष्ठिक ब्रह्मचर्यका पालन तथा अग्निहोत्रके सेवनसे
मनुष्योंको जो पुण्य प्रास होता है, वह गङ्गातरपर
निवास करनेसे ही मिल जाता है। गङ्खाजीके
भक्तको संतोष, उत्तम एश्वर्य, तत्त्वज्ञान, सुखस्वरूपता
तथा विनय एवं सदाचार-सम्पत्ति प्राप्त होती है ।
मनुष्य केवल गङ्गाजीको ही पाकर कृतकृत्य हो
जाता है'। जो भक्तिभावसे गङ्गाजीके जलका
स्पर्शं करता और गङ्गाजल पीता है, वह मनुष्य
अनायास ही मोक्षका उपाय प्राप्त कर लेता दैर।
जिनके सम्पूर्ण कृत्य सद्र गङ्गाजलसे ही सम्पन्न
होते हैं, पे मनुष्य शरीर त्यागकर भगवान् शिवके
समीप आनन्दका अनुभव करते है । जैसे इन्द्र
आदि देवता अपने मुखसे चन्द्रमाकी किरणोंमें
स्थित अमृतका पान करते हैं, उसी प्रकार मनुष्य
गङ्गाजीका जल पीते हैं। विधिपूर्वकं कन्यादान
और भक्तिपूर्वक भूमिदान, अन्नदान, गोदान, स्वर्णदान,
रथदान, अश्वदान और गजदान आदि करनेसे जो
पुण्य बताया गया है, उससे सौ गुना अधिक पुण्य
चुष्टूभर गङ्गाजल पीनेसे होता है। सहस्तरों
चान्द्रायणत्रतका जो फल कहा गया है, उससे
वीक्ष्य गङ्गां भवेत् पतः पुरुषों नात्र संशय:॥
सदा। सर्पवत्कञ्चुकं मुक्त्वा पापहीनौ भवेत् स यै॥
राशयः पापकर्मणाम् । गङ्गाम्भसा विनश्यन्ति विष्णुभक्त्या यथापदः ॥
प्रवेशमात्रे गङ्गायां स्नानार्थं भक्तितो नृणाम्। ब्रह्महत्यादिपापानि हात्युक्त्वा प्रयान्त्यलम् ॥
गङ्गातीरे वसेन्नित्यं गङ्गात्तोयं पिवेत् सदा। यः पुमान् स विमुच्येत पातकैः पूर्वसंचितैः॥
यो वै गङ्खां समाश्रित्य नित्यं तिष्ठति निर्भयः। स एव देवैर्मत्यैंथ पूजनीयों महर्षिभिः॥
(ना० उत्तर० ३८। ३२-३७)
२.संतोषः परमैश्वर्यं तत्त्वज्ञानं सुखात्मता ॥ विनयाचारसप्यक्तिङ्गाभक्तस्य जायते।
(ना० उत्तर० ३८। ४९-५०)
३.भक्त्या तज्जलसंस्पशी तज्जलं पिबते च यः ॥ अनायासेन हि नरो मोक्षोपायं स विन्दति।
४.सर्वाणि येषं गङ्गायास्तोयैः कृत्यानि सर्वदा ।
(ना० उत्तर० ३८। ५१-५२)
देहं त्यक्त्वा नरास्तै तु मोदन्ते शिवसंनिधौ ॥
(ना उत्तर० ३८। ५३)