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ॐ ३० ]

*दशम स्कन्ध *

६४३

कैक मौ मौ मौ मौ नि मौ मौ मै मौनि म मौ मिनिम मिनि मि नि मै मै निनि निमे नि ममन निन मै मन मैन मै निवन नौ ममौ मौ मौ नै मौ मै नैतौ औ मौ के के

अपनी प्रेयसीके कंधेपर रक्खे होंगे। हमारे प्यारे

श्यामसुन्दर इधरसे विचरते हुए अवश्य गये होंगे। जान

पड़ता है, तुमलोग उन्हें प्रणाम करनेके लिये ही झुके हो ।

परन्तु उन्होंने अपनी प्ेमभरी चितवनसे भी तुम्हारी

वन्दनाका अभिनन्दन किया है या नहीं ?' ॥ १२॥ "अरौ

सखी ! इन लताओंसे पूछो। ये अपने पति वृक्षोंको

भुजपाशमें बांधकर आलिङ्गन किये हुए हैं, इससे क्या

हुआ ? इनके शरीरमें जो पुलक है, रोमाञ्च है, वह तो

भगवान्‌के नखोंके स्पर्शसे ही है। अहो ! इनका कैसा

सौभाग्य है ?' ॥ १३॥

परीक्षित्‌ ! इस प्रकार मतवाली गोपियाँ प्रलाप करती

हुई भगवान्‌ श्रीकृष्णको ढूँढ़ते-ढूँढ़ते कातर हो रही थीं।

अब और भी गाढ़ आवेश हो जानेके कारण वे भगवन्मय

होकर भगवान्‌की विभिन्न लीलाओंका अनुकरण करने

लगीं ॥ १४॥ एक पूतना बन गयी, तो दूसरी श्रीकृष्ण

बनकर उसका स्तन पीने लगीं । कोई छकड़ा बन गयी, तो

किसने बालकृष्ण बनकर रोते हुए उसे पैस्की ठोकर

मारकर उलट दिया ॥ १५॥ कोई सखी बालकृष्ण बनकर

बैठ गयी तो कोई तृणावर्त दैत्यका रूप धारण करके उसे

हर ले गवौ । कोई गोपी पाँव घसीट-घसीटकर घुटनोंके

बल बकैयाँ चलने लगी और उस समय उसके पायजेब

रुनझुन-रुनझुन बोलने लगे॥ १६॥ एक बनी कृष्ण, तो

दूसरी बनी बलराम और बहुत-सी गोपियाँ ग्वालबालोंके

रूपमे हो गयीं। एक गोपी बन गयी वत्सासुर, तो दूसरी

बनी बकासुर। तब तो गोपियोने अलग-अलग श्रीकृष्ण

बनकर वत्सासुर और बकासुर बनी हुई गोपियोंको

मारनेकी लीला की ॥ १७ ॥ जैसे श्रीकृष्ण वने करते थे,

वैसे ही एक गोपी बाँसुरी बजा-बजाकर दूर गये हुए

पशुओंको बुलानेका खेल खेलने लगी। तब दूसरी

गोपियां 'बाह-वाह' करके उसकी प्रशंसा करने

लगीं॥ १८॥ एक गोपी अपनेको श्रीकृष्ण समझकर

दूसरी सखीके गलेमें बाँह डालकर चलती और गोपियोंसे

कहने लगती--'मित्रो-! मैं श्रीकृष्ण हूँ। तुमलोग मेरी यह

मनोहर चाल देखो' ॥ १९ ॥ कोई गोपी श्रीकृष्ण बनकर

कहती-- "अरे व्रजवासियो ! तुम आँधी-पानीसे मत

इरो । मैंने उससे बचनेका उपाय निकाल लिया है ।' ऐसा

कहकर गोवर्धन-धारणका अनुकरण करती हुई वह

अपनी ओदनी उठाकर ऊपर तान लेती ॥ २०॥

परीक्षित्‌ ! एक गोपी बनी कालिय नाग, तो दूसरी श्रीकृष्ण

बनकर उसके सिरपर पैर रखकर चढ़ी-चढ़ी बोलने

लगी--र दुष्ट साँप ! तू यहाँसे चला जा। मैं दुष्टे

दमन करनेके लिये ही उत्पन्न हुआ हूं ॥ २१ ॥ इतनेमे ही

एक गोपी बोली--'ओरे ग्वालो ! देखो, वनमें बड़ी

भयद्भूर आग लगी है । तुमलोग जल्दी- से-जल्दी अपनी

आँखे भद लो, मै अनायास ही तुमलोगोंकी रक्षा कर

लूँगा' ॥ २२॥ एक गोपी यशोदा बनी और दूसरी बनी

श्रीकृष्ण । यशोदाने फूलोकी मालासे श्रीकृष्णको ऊखलमें

याँध दिया। अब वह श्रीकृष्ण बनी हुई सुन्दरी गोपी

हाथोंसे मुँह ढाँककर भयकी नकल करने लगी ॥ २३॥

परीक्षित्‌ ! इस प्रकार लीला करते-करते गोपियाँ

वृन्दावनके वृक्ष और लता आदिसे फिर भी श्रीकृष्णका

पता पूछने लगीं। इसी समय उन्होंने एक स्थानपर

भरगवानके चरणचिह्न देखे ॥ २४॥ वे आपसमें कहने

लगीं--'अवश्य ही ये चरणचिह्न उदारशिरोमणि नन्दनन्दन

श्यामसुन्दरके हैं; क्योंकि इनमें ध्वजा, कमल, वत्र

और जौ आदिके चिह्न स्पष्ट ही दीख रहे

हैं'॥ २५॥ उन चरणचिहोंके द्वारा व्रजवल्लभ

भगवानको ढूँढ़ती हुई गोपियाँ आगे बढ़ीं, तब उन्हें

श्रीकृष्फे साथ किसी व्रजयुवतीके भी चरणचिह्न दीख

पड़े। उन्हें देखकर वे व्याकुल हो गयीं। ओर आपसे

कहने लगीं -- ॥ २६॥ “जैसे हथिनी अपने प्रियतम

गजराजके साथ गयी हो, वैसे ही नन्दनन्दन श्यामसुन्दरके

साथ उनके कंधेपर हाथ रखकर चलनेवाली किस

बड़भागिनीके ये चरणचिह्न है ? ॥ २७॥ अवश्य हो

सर्वशक्तिमान्‌ भगवान्‌ श्रीकृष्णकी यह “आराधिका'

होगी । इसीलिवे इसपर प्रसन्न होकर हमारे प्राणप्यारे

श्यामसुन्दरने हमें छोड़ दिया है और इसे एकान्तमे ले

गये हैं॥ २८ ॥ प्यारी सखियो ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपने

चरणकमलसे जिस रजक स्पर्श कर देते हैं, वह धन्य

हो जाती है, उसके अहोभाग्य हैं; क्योकि ब्रह्मा, शङ्कर

और लक्ष्मी आदि भी अपने अशुभ नष्ट करनेके लिये

उस रजको अपने सिरपर धारण करते है' ॥ २९॥ 'अरी

सखी ! चाहे कुछ भी हो--यह जो सखी हमारे सर्वस्व

श्रीकष्णको एकान्तमे ले जाकर अकेले ही उनकी

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