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है, इसमें संशय नहीं है। यह “रक्षायन्त्र' वन्ध्याको | है तथा राज्य और पृथ्वीको जीत लेता है।

भी पुत्र देनेवाला तथा दूसरी चिन्तामणिके | *फट्‌ स्त्रं क्षँ हं '- इन चार अक्षरोका एक लाख

सपान मनोवाञ्छाकी पूर्ति करनेवाला है। इससे | जप करनेसे यक्ष आदि भी वशीभूत हो जाते

रक्षित हुआ मनुष्य परराष्ट्रोपप भी अधिकार पाता | हैँ ॥ १३--२५॥

“इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें “त्वरिता-विद्यासे प्राष्ता होनेवाली सिद्धिवोका वर्णन” नामक

तीन सौ बारहवा अध्याय परा हुआ॥३१२॥

+

तीन सौ तेरहवाँ अध्याय

नाना मन्त्रोका वर्णन

अग्निदेव कहते हैं-- अब मैं सच्विदानन्दस्वरूप

भगवान्‌ विनायक (गणेश) -के पूजनकी विधि

बताऊँगा। योगपीटपर प्रथम तो आधारशक्तिकी

पूजा करे। फिर अग्नि आदि कोणो तथा पूर्वादि

दिशाओंमें क्रमशः धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य,

अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य तथा अनैश्वर्य-इन

आठकी अर्चना करे । तदनन्तर कन्द्‌, नाल, पद्म,

कर्णिका, केसर और सत्त्वादि तीन गुणोंकी और

पद्मासनकी पूजा करे । इसके बाद तीव्रा, ज्वालिनी,

नन्दा, सुयशा (भोगदा), कामरूपिणी, उग्रा,

तेजोवती, सत्या तथा विध्ननाशिनी -इन नौ

शक्तियोंकी पूजा करे । तत्पश्ात्‌ गणेशजीकी मूर्विका

अथवा मूर्तिके अभावे ध्यानोक्तं गणपतिमूर्तिका

पूजन करे। इसके बाद हदयादि अङ्गौकी पूजा

करनी चाहिये। पूजनके प्रयोगवाक्य इस प्रकार

है-*गणंजयाय हृदयाय नम: एकदन्ताय उत्कटाय

शिरसे स्वाहा! अचलकर्णिने शिखायै वषट्‌ ।

गजवक्त्राय हं फट्‌ कवचाय हुम्‌। महोदराय

दण्डहस्ताय अस्त्राय फट्‌ *।'

-इन पाँच अनज्ञोंमेंसे चारकी तो पूर्वादि

चार दिशाओंमें और पाँचवेंकी मध्यभागमें पूजा

करे॥ १--४॥

तदनन्तर गणंजय, गणाधिप, गणनायक, गणेश्वर,

वक्रतुण्ड, एकदन्त, उत्कट, लम्बोदर्‌, गजवकतर

और विकटानन--इन सबकी पद्मदलोंमें पूजा

करे। फिर मध्यभागे -' हं विघ्ननाशनाय नम:।

महेन्द्राय-धूप्रवर्णाय नमः।'-योँ बोलकर

विध्ननाशन एवं धूप्रवर्णकी पूजा करे। फिर

बाह्मभागमें विध्नेशका पूजन करे ॥५-६॥

अब मैं 'त्रिपुराभैरवी 'के पूजनकी विधि बताऊँगा।

इसमें आठ भैरवॉका पूजन करना चाहिये। उनके

नाम इस प्रकार है - असिताङ्ग भैरव, रुरुभैरब,

अण्डभैरव, क्रोधभैरव, उन्मत्तभैरव, कपालिभैरव,

भीषणभैरव तथा संहारभैरव। ब्राह्मी आदि मातृकां

भी पूजनीय हैं। (उनके नाम इस प्रकार हैं--

ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, इन्द्राणी,

चामुण्डा तथा महालक्ष्मी) । * अकार' आदि हस्व

स्वरोके बीजको आदिमें रखकर भैरवोंकी पूजा

*ओविदयार्भवतन्त्र में पशाड्न्यासके जो प्रवोगवाक्य दिये गये हैं, ये यहाँके मुलभागसे कुछ भिनता रखते हैं। उनमें करन्यास एवं

अङ्गन्यास एक साथ निर्दिष्ट हैं, यथा--' अन्लुए्रयों: गणंजयाव स्वाहा दयाय नम:। तर्जन्यो: एकदंष्टाय हं कट्‌ शिरसे स्वाहा। मध्वमयोः

अचलकर्णिते जमो नम: शिखायपै वषट्‌। अकाभिकयोः शजवक्जाय नमो नमः कयचाय हुम्‌। कनिष्ठिकयोः महोदराय चण्डाय हूँ फट्‌

अस्त्राय फट्‌।' इसमें करन्यासगत वाक्योंमें करतल-करपृष्ठकों और अङ्गनयासगात वावयोपिं नेत्रकों छोड़ दिया गया है। षटङ्गपकषमे इदयादि

अङ्गौ न्यास अथवा पूजन चोजमन्त्रसे करना चाहिये। यथा -' गां हृदयाय नमः । गीं शिरसे स्वाहा। शुं शिखायै वषट्‌ । ग कवचाय हुम्‌।

शौ नेतरतरयाय यौषट्‌। गः अस्त्राय फट्‌ ।' इनमेंसे चार अद्जॉका तो आराध्य देवताके चारों दिशाओँमें और नेत्र तथा अस्त्रका मध्यवर्ती

स्थान-देवताके अग्रभागमें पूजन करना चाहिये ।

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