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उत्तरभाग

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है, वह तीसरे प्रकारका हिंसक है। मारे हुए | भूमिमें प्रवेश किया, जहाँ केलेके बगीचे आश्रमको

जीवका मांस खानेवाला चौथा हिंसक है; उस

मांसको पकाकर तैयार करनेवाला पाँचवाँ हिंसक

है तथा राजन्‌! जो यहाँ उसका बँटबारा करता है,

वह छठा हिंसक है। विद्वान्‌ पुरुषोंने हिंसायुक्त

धर्मको अधर्म ही माना है। धर्मात्मा राजाओंमें भी

मृगोंके प्रति दयाभावका होना ही श्रेष्ठ माना गया

है। मैंने आपके हितकौ भावनासे ही बार-बार

आपको मृगयासे रोकनेका प्रयत्न किया है।'

ऐसी बातें कहती हुई अपनी धर्मपत्नीसे राजा

रुवमाङ्गदने कहा-'देवि! मैं मृगोंकी हत्या नहीं

करूँगा। मृगया बहाने हाथमे धनुष लेकर वनमें

विचरण करूँगा। वहाँ जो प्रजाके लिये कण्टकरूप

हिंसक जन्तु हैं, उन्हींका वध करूँगा। जनपदमें

मेरा पुत्र रहे और वनमें मैं। वरानने! राजाको

हिंसक जन्तुओं और लुटेरोंसे प्रजाकी रक्षा करनी

चाहिये। शुभे ! अपने शरीरसे अथवा पुत्रके द्वारा

प्रजाकी रक्षा करना अपना धर्म है। जो राजा

प्रजाकी रक्षा नहीं करता, वह धर्मात्मा होनेपर भी

नरकमें जाता है; अत: प्रिये! मैं हिंसाभावका

परित्याग करके जन-रक्षाके उद्देश्यसे वनमें जाऊँगा!'

रानी सन्ध्यावलीसे ऐसा कहकर राजा रुवमाङ्गद ||

अपने उत्तम अश्वपर आरूढ़ हुए। वह घोड़ा

पृथ्वीका आभूषण, चनद्रमाके समानं धवल वर्ण

ओर अश्वसम्बन्धी दोषोंसे रहित था। रूपमें

उच्चैःश्रवाके समान ओर वेगम वायुके समान था।

राजा स्वमाङ्गद पृथ्वीकों कम्पित करते हुए-से

चले। वे नृपश्रेष्ठ अनेक देशोंको पार करते हुए

वनमें जा पहुँचे। उनके घोड़ेके बेगसे तिरस्कृत हो

कितने ही हाथी, रथ और घोड़े पीछे छूट जाते थे।

वे राजा स्क्माङ्गद एक सौ आठ योजन भूमि

लाँघकर सहसा मुनियोंके उत्तम आश्रमपर पहुँच

गये। घोड़ेसे उतरकर उन्होंने आश्रमकी रमणीय

शोभा बढ़ा रहे थे। अशोक, वकुल (मौलसिरी),

पुन्नाग (नागकेसर) तथा सरल (अर्जुन) आदि

वृक्षोंसे वह स्थान घिरा हुआ था। राजाने उस

आश्रमके भीतर जाकर द्विजश्रेष्ठ महर्षि वामदेवका

दर्शन किया, जो अग्रिके समान तेजस्वी जान

पड़ते थे। उन्हें बहुत-से शिष्योंने घेर रखा था।

राजाने मुनिको देखकर उन्हें आदरपूर्वक प्रणाम

किया। उन महर्षिने भी अर्घ्य, पाद्य आदिके द्वारा

राजाका सत्कार किया। वे कुशके आसनपर

बैठकर हर्षभरी बाणोसे बोले--'मुने! आज मेरा

पातक नष्ट हो गया। भलीभाँति ध्यानमें तत्पर

रहनेवाले आप-जैसे महात्माके युगल चरणारविन्दोंका

दर्शन करके मैंने समस्त पुण्य-कर्मोंका फल प्राप्त

कर लिया।' राजा रुक्माङ्घदकी यह बात सुनकर

वामदेवजी बड़े प्रसन्न हुए और कुशल-मङ्गल

पूछकर बोले-" राजन्‌! तुम अत्यन्त पुण्यात्मा

तथा भगवान्‌ विष्णुके भक्त हो। महाभाग ! तुम्हारी

दृष्टि पड़नेसे मेरा यह आश्रम इस पृथ्वीपर अधिक

पुण्यमय हो गया। भूमण्डलमें कौन ऐसा राजा

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