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पाँच अक्षरतकके मन्त्र सर्वदा ओर सबके लिये

सिद्धिदायक होते हैं'॥ १-२ ६॥

मन्त्रोंकी तीन जातियाँ होती हैं-स्त्री, पुरुष

और नपुंसक। जिन मन्त्रके अन्ते “स्वाहा'

पदका प्रयोग हो, वे स्त्रीजातीय हैं। जिनके

अन्तमें “नमः ' पद जुड़ा हो, वे मन्त्र नपुंसक हैं। | '

शेष सभी मन्त्र पुरुषजातीय हैं।वे वशीकरण और

डच्चाटन-कर्ममें प्रशस्त माने गये हैं। क्षुद्रक्रिया

तथा रोगके निवारणार्थं अर्थात्‌ शान्तिकर्ममें स्त्रीजातीय

मन्त्रः उत्तम माने गये हैं। इन सबसे भिन

(विद्वेषण एवं अभिचार आदि) कर्ममें नपुंसक

मन्त्र उपयोगी बताये गये हैँ ॥ ३-४१॥

मन्त्रके दो भेद हैं--' अग्रेय' और ' सौप्य'।

जिनके आदियें * प्रणव ' लगा हो, वे “आग्रेय' हैं

और जिनके अन्तर्मे “प्रणब'का योग है, वे

"सौम्य' कहे गये है । इनका जप इन्हीं दोनोंके

कालमें करना चाहिये (अर्थात्‌ सूर्य-नाडी चलती

हो तो 'आग्रेय-मन्त्र 'का और चन्द्र-नाडी चलती

हो तो 'सौम्य-मन्त्रों 'का जप करे)' | जिस मन्त्रमें

तार (ॐ), अन्त्य (क्ष), अग्नि (र), वियत्‌

(ह) - इनका बाहुल्येन प्रयोग हो, वह 'आग्रेय

माना गया है । शेष मन्त्र 'सौम्य' कहे गये है*। ये

दो प्रकारके मन्त्र क्रमशः क्रूर ओर सौम्य कर्मोपिं

प्रशस्त माने गये हैं।* * आग्रेय मन्त्र' प्रायः अन्तर्मे

नमः" पदसे युक्त होनेपर ' सौम्य' हो जाता है

और सौम्य मन्त्र भी अन्तमें "फट्‌" लगा देनेपर

'आग्रेय' हो जाता है।* यदि मन्त्र सोया हो या

सोकर तत्काल ही जगा हो तो वह सिद्धिदायक

नहीं होता है। जब वामनाड़ी चलती हो तो वह

'आग्रेय मन्त्र'के सोनेका समय है और यदि

दाहिनी नाड़ी (नासिकाके दाहिने छिद्रसे साँस)

चलती हो तो वह उसके जागरणका काल है।

"सौम्य मन्त्र 'के सोने और जागनेका समय इसके

विपरीत है। अर्थात्‌ बामनाड़ी (साँस) उसके

जागरणका और दक्षिणनाड़ी उसके शयनका

काल है। जब दोनों नाड़ियाँ साथ-साथ चल रही

हों, उस समय आग्रेय और सौम्य--दोनों मन्त्र

जगे रहते हैं। (अतः उस समय दोनोंका जप

मन्त्रकों तरुण ' तथा चालीस अक्षरोंके मन्त्रकों ' प्रौद्‌ ' बताया गया है। इससे ऊपर अक्षर-संख्यावाला मन्त्र 'वृद्ध' कहा गया है।

१. 'शास्दातिलक 'की टीकामें उद्धूत ' प्रयोगसार ये शब्दभेदसे यही बात कहो गयौ है । ° श्रोनारायणीय-तन्व 'में तो ठोक ' अग्निपुराण "को

आनुपूर्वी हो प्रयुक्त हुई है।

२. 'कुल प्रकाश-तन्त्र'में स्त्रीजालोय घन्त्रोंको श्ञान्तिकर्समें उपयोगी बताया गया है। शेष बातें अग्रिपुणाणके ही अनुसार हैं--

स्त्रीमन्णा यहिजायात्ता इदयान्ता नपुंसकाः । शेषाः पुमांस इत्युक्ताः स्जोमन्त्राक्षदिशन्तिके ॥

नपुंसक: स्मृता मन्व व्ये

चाभिचास्के । पुमांसः स्युः स्मृताः सर्वे वध्योच्चाटनकर्मसु ॥

(श्रोविद्यार्णकरन्तर २ उच्छास)

“ब्रयोगसार ` -' वषट्‌" और ' फट्‌" जिनके अन्ते लगें, ये ' पुल्लिङ्ग ' ' वौषट्‌ ' और स्वाहा" अन्ते लगें, ये स्वलिङ्ग ' तथा "हुं

कमः ' जितके अन्तये लगें, वै " नपुंसक लिङ्गं ' मन्त्र कहें गये हैं।

३. ' श्रीतारावणीय तन्त्र 'में भी यह ऋत इसी आनुपूर्वीं करौ गयो है ।

४. 'जञारदातिलक 'में सौम्य-मन्त्रोकौ भी सुस्पष्ट पहचान दो गयो है ~ जिसमे ' सकार ' अथवा ' यकार का बाहुल्य हो, यह ' सौम्य

मन्ज' है । जैसा कि वचन है--' सौम्य भूपिडेन्द्रमृताक्षरा: |

(२१६१)

५. 'शारदातिलक 'में भी 'विज्ञेया: क्रूरसौम्ययो: '--कहकर इसौ बातकौ पुष्टि कौ गयी है। ईशानशम्भुने भी यही बात कहौ है--

*स्यादाग्रेयै: कूरकाय॑प्रसिद्धि: सौम्यैः सौप्यं कर्म कुर्याद्‌ यथावत्‌'।

६. ईशानशम्भुने भी ऐसा ही कहा है--आप्रेयो5पि स्यात्तु सौम्यो नमोऽन्तः सौम्यो5पि स्थादप्रिमन्त्र: फडन्तः ।

“नागयणीय-तन्त्र 'में यहीं बात यों कहौ गयी है--

आश्रेयमन्त्र: सौम्यः स्यात्‌ प्रायशोऽन्ते नमोऽन्कितिः । सौस्यमन्जस्तथा55ग्रेयः फटकारेणान्वितो5न्तत: ॥

362 अग्नि पुराण २०

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