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राजधर्म वर्णन ] [ २९६७

अधिकारेषु सर्वेषु विनीतं विनियोजयेत्‌ ।

आदौ स्वल्पे ततः पश्चातृक्रमेणाथ महत्स्वपि ।७

श्री मत्स्य भगवान्‌ ने कहा---हे राजन्‌ ! राजा को अपने पुत्र

को रक्षा करनी चाहिये और रक्षा करने वालों के सहित नित्य युक्त

यहाँ पर आचाय को नियुक्त करना चाहिए ।१। उस पुत्र को धर्म-काम

ओर अर्थ शास्त्रों की तथा धनुर्वेद को शिक्षा दिलवानी चाहिए रथ में

तथा कुज्जर में भी दीक्षित करावे मौर सदा इस अपने पुत्र से व्यायाम

करवाना चाहिए ।२। इस पुत्र को अनेक शिल्पो की शिक्षा दिलवावे |

ऐसा प्रयत्न करे कि वहाँ आप्त अर्थात्‌ सत्य वक्ता होवे ओर कभी उसे

मिथ्या बोलने का अवसर ही न होवे । राजा के पुत्र के शरीर की रक्षा

के मिष से पक्षियों को नियोजित करना चाहिए ।३। क्रद्ध-लुब्ध ओर

अपमानित हुए व्यक्तियों के साथ इस पुत्र का सज्भु कभी भी न होने

देवे । जंसे ही यह यौवन में पदापंण करे इसको विनीत बनाना चाहिए

।४। सज्जनो के सुदु्गेम मार्ग से इन्द्रियों के द्वारा जपक्रष्ट नहीं होने देवे ।

स्वभाव से ही अशक्य गुणों का आधान करना चाहिए । किसी गुप्त देश

में धुख से समन्वित उसका बन्धन करना चाहिए । जो राजकुमार अचि-

नीत होता है उसका कुल शीघ्र ह्वी विशीण्ण हुआ करता है। सभी

अधिकार के कार्बों में विनीत का नियोजन करना चाहिए । आदि में

छोटे पद पर इसके पश्चात्‌ क्रम से बड़े पदों पर भी नियक्तियाँ

करे ।५-५७। ह

मृगयां पानमक्षांश्च वजंयेत्‌ पृथिवोपतिः।

एतान्य सेवमानास्तु विनष्टाः प्रथिवीक्षत: ।८

बहवो नरशादूल ! तेषां सद्भुया न विद्यते ।

दिवा स्वापक्षितीणस्तु विशेषेणविवजंयेत्‌ ।€

वाक्पास्ष्यं न कर्तव्य दण्डपाद ष्यमेव च ।

परोक्षनिन्दा च तथा वजंनीया महीक्षिता ।१०

अथस्य दूषणं राजा द्विप्रकारं विवर्जयेत ।

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