काण्ड-७ सूक्त- ६२ २३
हे सोमपान करने वाले कर्मधारी इन्द्र और वरुणदेव ! आप दोनों इस निचोडे गये हर्षवर्दक सोम का पान
करे+ इस हेतु आपका अपराजेय रथ, आप दोनों को देवत्व की कामना वाले यजमान के घर के निकट लाए ॥१ ॥
१८७९, इन्द्रावरुणा मधुमत्तमस्य वृष्णः सोमस्य वृषणा वृषेथाम् ।
इदं वामन्धः परिषिक्तमासद्यास्मिन् बर्हिषि मादयेथाम् ॥२ ॥
है वरुण और इन््रदेव ! आप दोनों अभिलषित फलों की वर्षा करने वाले है । आपके लिए परम-मधुर
सोमभाग अत्र रूप “चमस' आदि पात्रों में रखा हुआ है ।आप इस बिछाए गए कुश के आसन पर बैठकर तृप्त हो|
[ ६१ - शापमोचन सूक्त (५९) ]
[ ऋषि- बादरायणि । देवता- अगिनाशन । छन्द- अनुष ]
१८८०. यो नः शपादशपतः शपतो यश्च नः शपात् ।
वृक्षइव विद्युता हत आ मूलादनु शुष्यतु ॥१ ॥
जो उलाहना न देने वाले मुझको शापित करे एवं कठोर वाक्यों द्वारा हमारी निन्दा करे, वह उसी प्रकार नष्ट
हो जाए, जिस प्रकार बिजलो से आहत हुआ वृक्ष मूल सहित सूख जाता है ॥१ ॥
[ ६२ - रम्यगृह सक्त (६५) |
[ ऋषि- ब्रह्मा । देवता- वास्तोष्पति, गृह समूह । छन्द- अनुष्टपू, १ परानुष्ट॒प् त्रिष्टप् ।]
१८८१. ऊर्जं विध्रद् वसुवनि: सुमेधा अधोरेण चक्षुषा मित्रियेण ।
गृहानैमि सुमना वन्दमानो रमध्वं मा बिभीत मत् ॥१॥
अन्न धारण करने वाला, धन का दान करने बाला, ्रेष्ठवुद्धि वाला, शान्त मन याला होकर सबके प्रति मित्र
भाव रखता हुआ, समस्त वन्दनीय जनों आदि का वन्दन करता हुआ, मैं अपने घर के पास पहुँच रहा हूँ (या घर में
प्रवेश कर रहा हूँ), यहाँ सब लोग मुझसे निर्भय होकर आनन्द से रहें ॥१ ॥
१८८२. इमे गृहा मयोभुव ऊर्जस्वन्त: पयस्वन्त: ।
पर्णा वामेन तिष्ठन्तस्ते नो जानन्त्वायतः २ ॥
ये हमारे घर हमें सुख देने वाले, बलदायक अत्न एवं दुग्ध आदि से युक्त रहें । प्रवास से लौटने पर ये हम
स्वामियों को भूलें नहीं ॥२ ॥
१८८३. येषामध्येति प्रवसन् येषु सौमनसो बहु: । गृहानुप ह्वयामहे ते नो जानन्त्वायतः ॥
इन घरों मे रहते हुए हमे सुखानुभूति हो ।घरों में हम अपने इ्-मित्रों को बुलाते हैं, हम सब आनन्दे से रहें ॥३॥
१८८४. उपहूता भूरिधनाः सखायः स्वादुसंमुदः ।
अक्षुध्या अतृष्या स्त गृहा मास्मद् बिधीतन ॥४ ॥
हे गृहो ! आप धन- सम्पन्न रहें आप मधुर पदार्थों से युक्त रहते हुए, हमारे मित्र बने रहें आप में निवास
करने वाले व्यक्ति भूख और प्यास से पीड़ित न रहें । हे गृहो ! परदेश से लौटते हुए हमसे तुम डरो नहीं ॥४ ॥
१८८५. उपहूता इह गाव उपहूता अजावयः ।
अथो अन्नस्य कौलाल उपहूतो गृहेषु नः ॥५ ॥
हमारे घते में गौएँ, भेड-चकरियाँ और सब प्रकार सत्ववाला अन्न रहे, कोई कमी न रहे ॥५ ॥