उत्तरपर्व ]
* संसारके दोषोंका वर्णन «
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शिशा काका कक काहि
होते ही फिर संसारके बन्धनको प्राप्त करूँगा।' इस प्रकार
गरभमे विचारता और मोश्षका उपाय सोचता हुआ जीय
अतिशय दुःखी रहता है । पर्वतके नीचे दब जानेसे जितना द्ेदा
जीवको होता है, उतना ही जरायुसे वेष्टित अर्थात् गर्भमें होता
है। समुद्रमें डूबनेसे जो दुःख चेता है, वही दुःख गर्भके जरमें
भी होता है, तप्त लोहेके खम्भेसे बाँधनेमें जीबको जो करेदा होता
है कही गर्भमें जठसप्रिके तापसे होता है। तपायी हुई सूइयोंसे
बेधनेपर जो व्यथा होती है, उससे आठ गुना अधिक गर्भमें
जीवको कष्ट होता है। जीवोकि लिये गर्भवाससे अधिक कोई
दुःख नहीं है। उससे भी कोटि गुना दुःख जन्म ठेते समय
होता है, उस दुःखसे मूच्छ भी आ जाती है। प्रबल प्रसव-
ऋायुकी प्रेरणासे जीव गर्भे बाहर निकलता है । जिस प्रकार
कोल्हूमें पीडन करनेसे तिल निस्सार हो जाते हैं, उसी प्रकार
दारीर भी योनियन्त्रके पीडनसे निस्तत््व हो जाता है। मुखरूप
जिसका द्वार है, दोनों ओष्ट कपाट हैं, सभी इन्द्रियाँ गवाक्ष
अर्थात् झरोखे हैं, दाँत, जिह्वा, गला, वात, पित्त, कफ, जरा,
शोक, काम, क्रोध, तृष्णा, राग, द्वेष आदि जिसमें उपकरण हैं,
ऐसे इस देह-रूप अनित्य गृहमे नित्य आत्माका निवास-स्थान
है। शुक्र-शोणितके संयोगसे शरीर उत्पन्न होता है और नित्य
ही मूत्र, विष्ठा आदिसे भरा रहता है। इसलिये यह अत्यन्त
अपवित्र है। जिस प्रकार विष्ठासे भरा हुआ घट बाहर धोनेसे
शुद्ध नहीं होता, इसी प्रकार यह देह भी खान आदिके द्वारा
पवित्र नहीं हो सकता । पञ्चगव्य आदि पवित्र पदार्थ भी इसके
संसर्गसे अपवित्र हो जाते हैं। इससे अधिक और कौन
अपवित्र पदार्थ होगा। उत्तम भोजन, पान आदि देहके संसर्गसे
मलरूप हो जाते हैं, फिर देहकी अपवित्रताका क्या वर्णन करें ।
देहको बाहरसे जितना भी शुद्ध करें, भीतर तो कफ, मूत्र, विषा
आदि भरे ही रहेंगे। सुगन्धित तेल देहमें मलते रहें, परंतु कभी
इस देहकी मलिनता कम नहीं होती । यह आश्चर्य है कि मनुष्य
अपने देहका दुर्गध्च सूँघकर, नित्य अपना मल-मूत्र देखकर
और नासिकाका मल निकालकर भी इस देहसे विरक्त नहीं
होता और उसे देहसे घृणा उत्पन्न नहीं होती । यह मोहक हौ
प्रभाव है कि शरीस्के दोष और दुर्गन्ध देख-सुँघकर भी इससे
ग्नि नहीं होती। यह करीर स्वभायतः अपवित्र है। यह
केलेके यृक्षकी भाति केवल त्वक् आदिसे आवृत्त और निस्सार
है । जन्म होते ही बाहरकी वायुके स्पर्शसे पूर्वजन्योक ज्ञान नष्ट
हो जाता है और पुनः संसारके व्यवहारमें आसक्त हो अनेक
दुष्कर्ममें रत हो जाता है और अपनेको तथा परमेश्वरकों भूल
जाता है। आँख रहते हुए भी नहीं देख पाता, बुद्धि रहते हुए.
भी भले-बुरेका निर्णय नहीं कर पाता । राग तथा लोभ आदिके
वशीभूत होकर वह संसारम दुःख प्राप्त करता रहता है। सूखे
मार्गमें भी पैर फिसलते हैं, यह सब मोहकी ही महिमा है।
दिव्यदर्शी महर्षियोंने इस गर्भका वृतान्त विस्तृत रूपसे वर्णन
किया है। इसे सुनकर भौ मनुष्यको वैराग्य उत्पन्न नहीं होता
और अपने कल्याणका मार्ग नहीं सोचता--यह बड़ा ही
आश्चर्य है।
बाल्यावस्थामें भी केवल दुःख ही है। बालक अपना
अभिप्राय भी नहीं कह सकता और जो चाहता है, वह नहीं
कर पाता, यह असमर्थ रहता है। इससे नित्य व्याकुल रहता
है। दाँत आनेके समय बालक बहुत छदा भोगता है और
भाँति-भाँतिके रोग तथा बालग्रह उसे सताते रहते हैं। वह
क्षुधा-तृष्णासे पीड़ित होता रहता है, मोहसे विष्ठा आदिका भी
भक्षण करने लगता है। कुमारावस्थामे कर्ण-बेधके समय
दुःख होता है। अक्षरास्म्भके समय गुरुसे भी बड़ा ही भय
होता है। माता-पिता ताड़न करते हैं।
युवावस्थामें भी सुख नहीं है। अनेक प्रकास्की ईर्ष्या
मनमें उपजती है। मनुष्य मोहमें लीन हो जाता है। यग आदियें
आसक्त होनेके कारण दुःख होता है, रात्रिकों नींद नहीं आती
और धनकी चित्तासे दिनमें भी चैन नहीं पड़ता। खी-संसरगमे
भी कोई सुख नहीं। कु व्यक्तिके कोढ़में कीड़े पड़ जानेपर
जो खुजलाहट होती है, उसे खुजलानेमें जितना आनन्द होता
है, उससे अधिक कामी व्यक्ति स्त्रीसे सुख नी मिलता ।?
१-अव्यक्तेन्दरियचुतित्कद् काल्ये दुःखं महत्पुतः । इच्छन्नपि > इतवनोति कत वक्त च सत्क्रियाम्॥
दब्तोत्थाने महदुःखं मौलेन व्याधिना तधा । बारुयोगैश्च विविधैः पीडा बालप्रहैरपि ध
क्रिभिभिस्तुद्यमाउस्य
मः भः पुर ऑल १०-
कुष्िनः कामिनस्तथा । कष्टूयन््ीस्तापेन यदधवेत् स्ीषु तद्धि तत् ॥
(उत्तरपर्व ४ । ६३-६४, ७६)