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४७६ | ~. -[ मत्स्य पुराणं

मृगान्‌ वराहान्‌ वृषभान्ये चान्ये वनचारिणः ।७५

भक्ष्यांश्चैवाप्य भक्ष्यांस्च सर्वास्तान्‌ भक्षयन्ति ताः ।

समुद्र संश्रिता यास्तु नदीश्चैव प्रजास्तु ता: ।७६

तेऽपि मत्स्यान्‌ ह रन्तीह्‌ आहारार्थं च स्वंशः ।

अभक्ष्याहा रदोषेण एक्रवणंगता प्रजा: ।७७

धम्मं के नष्ट होने पर सब प्रतिहत-ह््स्जक और पञ्चविशक हो

गये थे । अपनी दाराओं और युवो कात्वाग करके सब प्रजा विषाद से

ब्याकुल थी । अनावृष्टि के कारण हत हुए बे सब वार्ताका त्याग करके

अत्यन्त दुःखित थे । चीर तथा कृष्ण जिन (काला मृगचर्म) को धारण

करने -वाले-निप्क््‌ द्ध और सब बिना परिग्रह वालेथे । वर्ण और आश्रम

से प्रसिभ्रष्ट हुए घोर सद्भुरावस्यामें समस्थितये । इस प्रकार से कष्ट

को प्राप्त हुई सब प्रजायें अल्प शेष रह गई थीं ।७१-०३। जन्तुगण

संब भूख से आविष्ट हुए अत्यन्त दुःख से निर्बेद को प्राप्त छो गये थे ।

चक्र की भाँति परिवर्त्त करने वाले उन देशों का संश्रय किया करते

थे । इसके उपरान्त वे समस्त प्रजाये मासि का आहार करने बाली-हो

गई थीं । कुछ लोग मृगो को ख़ाते थे तो -कुछ वाराह-वृषभ और

अन्य वनन्नारियों का भक्षण किया करते थ ।७४-७५। वे सब प्रजायें

उस समय में ऐसी हो गई थीं कि चाहे मध्यो या अभक्ष्यहो सभी

का भरक्षण किया करते थे । कुछ प्रजाजन समुद्रों में तथा कुछ नदियों

का संंश्रव किया करते थे वे भी अपने आहार के लिए सर्वत्र मत्स्योंका

हरण किया करते थे । अभक्ष्य आहार के करने के दोष से. सब प्रजा

एक वर्णगत हो गई थीं ५६ ७३।

यथा कृतयुगे पृर्वंमेकवर्णमभृत्किल ।

तथा कलियुगस्यान्ते शूद्रीभूवाः प्रजास्तथा ॥७८

एवं बषशतं पृण दिव्यं तेषां न्यवर्तंत ।

पट्त्रिणच्च सहस्नाणि मनुषाणि तु कानि वे ।७€

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