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* अर्चयस्व इषीकेदौ यदीच्छसि चरै चदप् *
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[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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पुष्कलके द्वारा चित्राङ्गका वध, हनुमानजीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका
चापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
झेषजी कहते हैं--मुने ! राजकुमार चित्राज्
क्रौज्वव्यूहके कण्ठभागमें रथपर विराजमान था। अनेकों
यीरेंसे घिरे हुए होनेके कारण उसकी बड़ी शोभा हो रही
थीं। वाराहावतारधारी भगवान् विष्णुने जिस प्रकार
समुद्रमें प्रवेश किया था, उसी प्रकार उसने भी तञात्र॒ुघ्नको
सेनामें प्रवेश किया । उसका धनुष अत्यन्त सुदृढ़ और
मेघ-गर्जनाके समान टङ्कार करनेवाला था। चित्राड़ने
उसे खींचकर चढ़ाया और करोड़ों शत्रुओऑंको भस्म
करनेवाले तीखे ऋका प्रहार आरम्भ किया। उन
याणोंसे समस्त शरीर छिन्न-भिन्न हो जानेके कारण
बहुत-रो योद्धा धराशायी हो गये । इस प्रकार घोर संग्राम
आरम्भ हो जानेपर पुष्कलः भी युद्धके लिये गये । चित्राङ्ग
और पुष्कल दोनों एक-दूसरेसे भिड़ गये। उस समय
उन दोनोंका स्वरूप बड़ा ही मनोहर दिखायी देता था।
पुष्कलने सुन्दर भ्रामकास्नरका प्रयोग करके चित्राड्अके
दिव्य रथकों आकाझमें घुमाना आरम्भ किया । यह एक
अद्भुत-सी बात हुई। एक मुहूर्ततक आकारे चक्कर
लगानेके बाद घोड़ोंसहित वह रथ बड़े कष्टसे स्थिर हुआ
और युद्धभूमिं आकर ठहरा। उस समय नित्राड़ने
कहा--'पुष्कल ! तुमने बड़ा उत्तम पराक्रम दिखाया।
श्रेष्ठ योद्धा संग्राममें ऐसे कर्मकरी बड़ी सराहना करते हैं ।
तुम घोड़ोंसहित मेरे रथकरो आकाशामें घुमाते रह गये !
किन्तु अब मेश भी पराक्रम देखो, जिसकी शूरवीर
प्रशंसा करते हैं।' ऐसा कहकर चित्राड़ने युद्धमें बड़े
भयड्भूर अस्रका प्रयोग किया। उस बाणसे आबद्ध
होकर पुष्कलका रथ आकादामे पक्षीकी भाँति घोड़े और
सारचिसहित चक्कर लगाने लगा। पुत्रका यह पराक्रम
देखकर राजा सुबाहुकों बड़ा विस्मय हुआ।
झत्रुवीरॉंका दमन करनेवाले पुष्कलः जब किसी
तरह घरतीपर आकर ठे तो उन्होंने घोड़े और
सारथिसहित चितराङ्गके रथको अपने बाणोंसे नष्ट कर
दिया । जब वह रथ टूट गया तो वीर चित्राङ्ग पुनः दूसरे
रथपर सवार हुआ; परन्तु पुष्कलने कगे हाथ उसे भी
अपने बाणोंसे नष्ट कर डाला । इस प्रकार उस युद्धके
मैदानमें वीर पुष्कलने राजकुमार चित्राज़के दस रथ
चौपट कर दिये। तब चित्राङ्ग एक विचित्र रथपर सवार
होकर पुष्कल्के साथ युद्ध करनेके किये बड़े वेगसे
आया। उसने क्रोधमें भरकर पाँच भल्ल हाथमें लिये
और महातेजस्वी भरत-पुत्रके मस्तकको उनका निशाना
बनाया । उन भल्लोंकी चोट खाकर पुष्कल क्रोधसे जल
उठे और धनुषपर बाणका सन्धान करके चित्राड्को मार
डालनेकी प्रतिज्ञा करते हुए बोले--'चित्राड़ ! यदि इस
बाणसे मैं तुम्हारे प्राण न ले लूँ तो डील और सदाचारसे
ज्ञोभा पानेवाली सती नारीको कलङ्कित करनेसे
यमराजके वदाम पड़े हुए पापी मनुष्योको जिस ल्लेककी
प्राप्ति होती है, यही मुझे भी पिले ! मेरी यह प्रतिज्ञा सत्य
हो ।' पुष्कलका यह उत्तम वचन सुनकर अन्रुपक्षके
वीरोंका नाश करनेवाल्म् बुद्धिमान् वीर चित्राज़ हँसकर
बोल्म--'शुरशिरोमणे ! प्राणियॉंकी मृत्यु सदा और
सर्वत्र ही हो सकती है; अतः मुझे अपने मरनेका दुःख
नहीं है; किन्तु तुम मेरे वधके लिये जो बाण छोड़ोगे, उसे
मैं यदि काट न डा तो उस अवस्थामें मेरी प्रतिज्ञा
सुनो--जो मनुष्य तीर्थ-यात्राकी इच्छा रखनेयाटे
पुरुषका सानसिक उत्साह नष्ट करता है, उसको
लगनेवाला पाप मुझे भी लगे; क्योकि उस दशाम मैं
प्रतिज्ञा-भड्गका अपराधी समझा जाऊँगा ।' इतना कहकर
चित्राङ्ग चुप हो गया। उसने अपने धनुषको सैंभाला।
तव पुष्कल खोले--“यदि मैंने निष्कपट भावसे
श्रीरामचन्द्रजीके युगल चरणॉकी उपासना की हो तो मेरी
बात सच्ची हो जाय । यदि मैं अपनी स्त्रीके सिवा दूसरी
किसी स्त्रीका मनमें भी विचार न करता होकं तो इस
सत्यके प्रभावसे युद्धम मेय वचन सत्य हो।' यह
कहकर पुष्कलने तुरंत ही अपने धनुषपर एक बाण
चढ़ाया, जो काल्म्रम्निकि समान तेजस्वी तथा वीरोंके