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३० * संक्षिप्त मार्कण्डेय पुराण +

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प्रकारके रोगोंक्ी धयानक पीड़ाएँ सहन की है । | प्रात हो गया? पहले तुमर्म जड़ता क्यों थो और

गभविस्यामें मैंने जो अनेकों प्रकारके दुःख भोगे| इस समय ज्ञान कहाँसे जग उठा ? क्वा यह

हैं, अचपन, जवानी और चुद्धपेमें भी जो क्लेश | मुनियों अथवा देवताओंके दिये हुए शापका

सहन किये हैं, वे सत्र मुझे वाद आ रहे हैः | क्रिकर था, जिससे पहले तुम्हारा ज्ञान छिप गया

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ओर शूद्रोंकी योनियोंसें, था और इस समय पुतः प्रकट द्रौ गया ? मैं यष्ट

फिर पशु, मृग, कीट और शश्चियोंकी योदियो्मे तथा | सारा हस्य खुतना चाहता हूँ। इसके लिये मेरे

राजसेवकों एत युद्धमें पराक्रम दिखागेवाले मजाक, पने बड़ा कौतृहल है। बेटा! तुमपर पहले जो

परोमें भी मैरे कई वार जन्मे हो चुके हैं। इसी | कुछ ओति चुका है, वह सब मुझें बताओ।'

तरह अबकी चार आपके ग्रमें भी मैंगे जन्म, पुत्रने कहा--पिताजी! मेश जो यह सुख

लिया है। मैं बहुत बार मनुष्योंका भृत्य, दास, | और दु:ख देदेवाला पुतं वृत्तान्त है, उसे सुदिये।

स्वापो, ईश्वर और दरिद्र रह चुका हूँ। दूसरोनि | इस जन्मके पहले पूर्वजन्ममें में जो कुछ था, बह

मुझे और मैंने दूसरोंको अनेक थार दान दिये हैं। सत्र बताता हूँ। पूर्वकाहमें मैं परमात्माके ध्यानपर

पिता, माता, सुद्‌, भाई और स्त्री इत्यादिके| मंत्र लगानेवाला एक ब्राह्मण था। आत्मत्रिद्याके

कारण छई बार संतुष्ट हुआ हूँ और कई बार दीन चिचारमें मैं पराकाप्ठाको पहुँचा हुआ था। मैं सदा

हो-होकर रोते हुए मुझे आँलुऑँसे मुँह धोना पड़ा | योगसाभतमे संलग्र रहता धरा निरतर अभ्यासमें

है। पिताजी! यों हौ इस संसार-चक्रमें भटकते, लगने, सत्पुरुषोंका सद्ग करने, अपने स्वभायसे

हुए मैंने अन्न वह ज्ञान प्राप्त किया है, जो मोक्षको | ही विचारपरायन होने, तत्वमसि आदि महात्रावयोंके

पराति करनेवाला हैं। उस ज्ञानकों प्राप्त कर लेनेपर | लिचारमे और तत्पदार्थक शोधन करने आदिके

अग चह ऋक्‌. यजु और सापचेदोक्त समस्त कारण उस्र परपात्पतत्वपें ही पेगौ परम प्रीति हो

क्रिया कलाप गुणशून्व दिखायी देनेके कारण मून | गये। फिर मैं शिष्योके सन्देहका निवारण करनेवाला

अच्छा नहीं लगता। अत; जब ज्ञान प्राप्त हों गया आचार्य बन गया। फिर चहुत समयके पथात्‌ में

तय नेदोंसे मुझे क्या प्रयोजन है। अब तो मैं गुरु- | एका्तमेषी हो गया; किन्तु दैवात्‌ अहानसे

विज्ञाससे रदृ. निरीह एवं सटात्मा हूँ। अतः | सद्भावका नाश हो जानेके कारण प्रमादमें पड़कर

छः प्रकारके भावविकार (जम्म, सत्ता, वृद्धि, | पेरी मृत्यु हो गयी ! तथापि मृत्युकालसे लेकर

परिणाम, क्षय और नाश), दुःख, सुख, इषं, राग | अबतक मेरी स्परणशक्तिका नीप नहीं हुआ। मेरे

तथा सम्पूर्ण गुणोंसे वर्जित उस प्रमपदरूप | जन्‍्पोंके जितने यर्थ वौत गये हैं, ठन खी

ब्रह्मको प्राप्त होऊँगा। पितजो ! जो रान, हर्ष, स्युति हो आयौ है। पिताजी! उस पूर्वजन्मके

भय, ठदवेग, क्रोध, अमर्षं और वृद्धानस्थासे व्याप्त | अभ्याससे ही जितेन्द्रिय होकर अन्न फिर मैं वैसा

है कथा कृत्ते. मृ आदिकों योगिपें बाधनेवाले हौ यन्न करूँगा, जिससे भविष्वमें फिर मेरा जन्म

सैकड़ों बन्धने युक्त है, उस दुःखकी परम्पणका | न हो। मैंने वो दूसरोंकों ज्ञान दिया था, ठीक

परित्थाग करके अब मैं चला जाऊँगा।' यह फल है कि सुझे पूर्वजन्यकी आातोंका स्मरण

पुत्रकी यह ब्ात सुनकर महाभाग पिताक | हो रहा है। केवल श्रयीधर्मं (कर्मकाण्ड) करा

इदय प्रसन्नतासे भर गया। उन्होंने हर्ष और शार लेनेवाले मनुष्योंको इसकी प्राप्ति वहीँ

विस्पयसे मद्रदवाणोभे वपते पृत्रसे कहा-- | सोती, अतः वै इस प्रधम आश्नयसे ही सन्या

"वेरा ! तुम धह कया कहते हौ ? तुम्हें करसे साग यम॑को आश्रव ले एफान्तसेन्नी हो आत्माक्े