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» पुराण परम॑ पुण्य भविच्यं सर्वसौख्यदप् «
[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाडु
वैसा आनन्द न चन्द्रकिरणोंसे मिलता है, न चन्दनसे, न शीतल
छयासे और न ज्ञीतल जलसे'। ब्राह्मणको चाहिये कि
सम्मानकी इच्छाकों भयंकर विषके समान समझकर उससे
डरता रहे और अपमानको अमृतके समान स्वीकार करे,
क्योंकि जिसकी अवमानना होती है, उसकी कुछ हानि नहीं
होती, वह सुखी ही रहता है और जो अवमानना करता है, वह
बिनाशको प्राप्त होता है। इसलिये तपस्या करता हुआ द्विज
नित्य वेदका अभ्यास करे, क्योकि वेदाभ्यास ही आ्राह्मणका
परमं तप है।
ब्राह्मणके तीन जन्म होते हैं--एक तो माताके गर्भसे,
दूसरा यज्ञोपवीत होनेसे और तीसरा यज्ञकी दीक्षा लेनेसे।
यज्ञोपवीतके समय गायत्री माता और आचार्य पिता होता है।
चेदकी शिक्षा देनेसे आचार्यकों पिता कहते है, क्योकि
यज्ञोपयीत होनेके पूर्व किसी भी वैदिक कर्मके करनेका
अधिकारी वह नहीं होता। श्राद्धमें पढ़े जानेवाले वेदमजोंको
छोड़कर (अनुपनीत द्विज) वेदपत्रका उच्चारण न करे, क्योकि
जबतक वेदारम्भ न हो जाय, तबतक वह शुद्रके समान माना
गया है। यज्ञोपवीत सम्पन्न हो जानेपर वटके तका उपदेश
ग्रहण करना चाहिये और तभीसे विधिपूर्वक वेदाध्ययन करना
चाहिये। यज्ञोपवीतके समय जो-जो मेखला-चर्म, दण्ड और
यज्ञोपवीत तथा वस्र जिस-जिसके लिये कहा गया है बह-वह
ही धारण करे। अपनी तपस्याकी वृद्धिके लिये ब्रह्मचारी
जिलेद्धिय होकर गुरूके पास रहे और नियमोंका पालन करता
रहे। नित्य स्नानकर पवित्र हो देवता, ऋषियों तथा पितरोंका
तर्पण करे। पुष्प, फल, जल, समिधा, मृत्तिका, कुदा और
अनेक प्रकारके क्यपष्टोंका संग्रह रखे। यद्य, मोस, गन्ध,
पुष्पमाला, अनेक प्रकारके रस और खियोक परित्याग करे ।
प्राणियोकी हिसा, शारीरम उबटन, अजन लगाना, जूता और
छत्र धारण करना, गीते सुनना, नाच देखना, जुआ खेलना,
झूठ बोलना, निन्दा करना, लियोकि समीप बैठना और काम,
क्रोध तथा लोभादिके वशीघृत होना--इत्यांदि बाते
ब्रह्मचारीके लिये निषिद्ध है । उसे संयमपूर्वक एकाकी रहना
चाहिये । वह जल, पुष्य, गौका गोबर, मृत्तिका ओर कुरा तथा
आवश्यकतानुसार भिक्षा नित्य लाये। जो पुरुष अपने करमेपिं
तत्पर हों और वेदादि-शास्तरोको पढ़ें तथा यज्ञादिमे श्रद्धावान्
हों, ऐसे गृहस्थेकि घरसे ही ब्रह्मचारीको भिक्षा ग्रहण करनी
चाहिये। गुरुके कुलमें और अपने पारिवारिक बन्धु-बान्धवोंके
पघ्ररोंसे भिक्षा न मग । यदि भिक्षा अन्यत्र न पिले तो इनके
घरसे भी धिक्षा ग्रहण करे, किंतु जो महापातकी हों उनकी
भिक्षा न के । नित्व समिधा लाकर सायंक्रल और प्रातःकाल
हवन करे। भिक्षा माँगनेके समय वाणी संयमित रखे ।
ब्रह्मचारीके लिये भिक्षाका अन्न मुख्य है । एकका अन्न नित्य
न छे । भिक्षावृत्तिसे रहना उपवासके करायर माना गया है । यह
धर्म केवल ब्राह्मणक त्म्ये कहा गया है, क्षत्रिय और वैदयके
धर्मे कु भेद है ।
जऋहयचारी गुरुके सम्मुख हाथ जोड़कर खड़ा रहे, जब
गुरुकी आज्ञा हो तब बैठे, परंतु आसनपर न बैठे। गुस्के
उठनेसे पूर्व उठे, सोनेके पश्चात् सोये, गुरुके सम्मुख अति
नम्नतासे बैठे, परोक्षमें गुस्का नाम उच्चारण न करे, किसी भी
बाते गुरुका अनुकरण अर्थात् ककल न करें। गुरुकी निन्दा
न करे और ज्यं निन्दा होती हो, आत्तरैचना होती हो वहाँसे
उठकर चल्त्र जाय अथवा कान बंद कर ले--
पीवाटस्तथा निन्दा गुरोर्यत्र प्रवर्तते ।
कर्णौ तत्र पि्रातव्यौ गन्तव्यं था ततोऽन्यतः ॥
(बाह्य ४। १७१)
वाहनपर चढ़ा हुआ गुरुका अभिवादन न करे, अर्थात्
वाहनसे उतरकर प्रणाम करे | गुरुके साथ एक वाहन. रित,
नौकायान आदिपर बैठ सकता है। गुरुके गुरु तथा श्रेष्ठ
सम्बन्धीजनों एवै गुरुपुत्रे साथ गुरुके समान ही व्यवहार
करे । गुरूकी सवर्णा सको गुरुके समान ही समझे, परैतु
गुरुपब्रीके उबटन लगाना, खानादि कराना, चरण दबाना आदि
क्रियाएँ निषिद्ध है। माता, बहन या बेटीके साथ एक
आसनपर न बैठे, क्योंकि बलवान् इद्धियॉका समूह विद्वानकों
भी अपनी ओर खीँच लेता है। जिस प्रकार भूमिको
१-न तथा पायी उ सलिले न चन्टससो २ परीतलच्छया | पाटयति च पुरुष यथा मधुरधाषिनी वाणी ॥ (ब्राहपर्त ४। १२८)
२-मात्रा स्वसा दुकत्र वा > विविक्तासते भवेत् । बलवाडिद्रयग्रामो
विद्धि कर्षति ॥ (आहापर्व ४ । १८४)