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कूर्पमहापुराणम्‌

है जगन्मय ! प्रधान-प्रकृति से लेकर इस सम्पूर्ण विश्व का | सर्वदा अन्दर विचरण करके अशेष भूतसमूह को धारण

आप हौ संहार करते हैं। आप ईश्वर, महादेव, परब्रह्म और

पहेद्वर हैं।

परमेप्ठी शिव: शान्तः पुरुषो निष्कलो हरः।

त्वपक्षरं परं ज्योतिस्त्वं काल: परमेश्वर:॥५६॥

आप परमेष्ठी, शिव, शान्त, पुरुष, निष्कल, हर, अक्षर,

परम ज्योति: और कालरूप परमेश्वर हैं।

त्वयेव पुरुषो3नन्त: प्रधानं प्रकृतिस्तवा।

भूमिरापो5नलो वायु्योगाहड्भार एव च॥।५७॥

यस्य रूपं नपस्यापि भवन्तं व्रक्मसंज्ितमा

यस्य द्यौरभवमयद्धा पादौ पुष्यो दिशो भुजा-॥५८॥

आकाश्पुदरं तस्मै विराजे प्रणमाप्यहम्‌।

आए हो अविनाशो पुरुष, प्रधान और प्रकृति हैं और

भूमि, जल, अग्नि, वायु, आकाज्ञ और अहंकार जिनका रूप

है, ऐसे ब्रह्मसंक आपको नमस्कार करता हूँ। जिनका

मस्तक दो है तथा पृथ्वी दोनों पैर हैं और दिशायें भुजाएँ हैं।

आकाश जिसका उदर है, उस विराट्‌ को मैं प्रणाम करता

ह|

सन्तापयति यो नित्यं स्वभाधिर्भासवन्‌ दिश:॥५९॥

्रहमतेजोपवं विश्ं तस्मै सूर्यात्यने नमः।

हव्यं वहति यो तत्वं रौद्री तेजोपयी तनु:॥६०॥

कल्यं पितृगणानां च तस्मै वह्णत्मने नपः।

जो सदा अपनो आभाओं से दिशाओं को उद्धासित करते

हुए ब्रह्मतेजोमय विश्व को सन्तप्त करते हैं, उन सूर्यात्मा को

नमस्कार है। जो तेजोमय रौद्र शरोरधारी नित्य हव्य को तथा

पितरों के लिए कव्य के वहने करते हैं, उस वहिस्वरूप

पुरुष को नमस्कार है।

आप्याययति यो नित्यं स्वघाम्ना सकलं जगत्‌॥ ६ १॥

पयते देवतामंधैस्तस्मै चद्धात्मने नमः।

विपर्च्यशेषभूतानि यान्तक्षरति सर्वदा॥६२॥

शक्तिमहिश्वरी तुभ्यं तस्मै वाय्वात्मने नपः।

सृजत्यशेषपेयेद यः स्वकर्मानुरूपत:॥६३॥

आत्पन्यवस्थितस्तस्मै चतुर्वक्त्रात्मने नम:।

यः शेते शेषशयने विश्वमावृत्य मायया॥ ६ ४॥

स्वात्पानुभूतियोगेन तस्यै थिष्ण्यात्मने नमः।

जो अपने तेज से सम्पूणं जगत्‌ कौ नित्य आलोकित

करते है तथा देवसमूह द्वारा जिनकी रश्मियों का पान किया

जाता है, उस चन्द्ररूप को नमस्कार है। जो माहेश्वरी शक्ति

करतौ है, उख वायुरूपों पुरुष को नमस्कार है। जो अपने

कर्मानुरूप इस सम्पूर्ण जगत्‌ का सृजन करता है, आत्मा में

अवस्थित उस चतुर्मुखरूपी पुरुष को नमस्कार है। जो

आत्मानुभूति के योग से माया द्वारा विश्व को आवृत्त करके

शेषशय्या पर शवन करते हैँ उन विष्णुमूर्ति स्वरूप को

नमस्कार है।

विभर््ति शिरसा नित्यं द्विस्पुवनात्पकप्‌॥ ६५॥

ब्रह्माण्ड वोऽखिलाघारस्तस्यै शेषात्मने नमः।

यः पगतते परानन्दं पीत्वा देव्यैकसाक्षिकम्‌॥ ६६॥

त्यत्यनन्तमहिमा तस्मै रुद्रात्मने नमः।

योऽन्तरा सर्वभूतानां नियन्ता तिषठतीश्चरः॥ ६७॥

यस्य केशेषु जीपूता नद्यः सर्वाङ्गसखिष्‌।

कुक्षौ समुद्राक्षत्वारस्तस्मै तोयात्मने नम:॥ ६८॥

जो चतुर्दल भवनों वाले इस ब्रह्माण्ड को सवंदा अपने

मस्तक द्वारा धारण करते हैं और जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के

आधाररूप हैं, उन शेषरूपधारी आपको नमस्कार है। जो

महाप्रलय के अन्त में परमानन्द का पान कर दिव्य, एकमात्र

साक्षी तथा अनन्त महिमायुक्त होकर नृत्य करते हैं, उन

रुद्रस्वरूप को नमस्कार है। जो सब प्राणियों के भीतर

नियन्ता होकर ईश्वररूप में स्थित है। जिनके केशों में

येघसमृह, सर्वांड्रसन्धियों में नदियाँ तथा कुक्षि में कारों

समुद्र रहते हैं उन जलरूप परमेश्वर को नमस्कार है।

तं सर्वसाक्षिणं देवं नमस्ये विश्वतस्तनुमा

यं विनिद्रा जितश्वासा: मनुष्टाः समदर्शिन:॥६९॥

ज्योतिः पश्यन्ति युझ्ञानास्तस्पै योगात्मने नपः।

यया सन्तते पायां योगी मंक्षोणकल्यष॥।७०॥

अपारतरपर्यन्तां तस्मै विज्ञात्मने नपः।

यस्य भासा विात्यर्को हो वत्तमसः परम्‌॥७९॥

परपदे तत्परं तत्वं तदरूपं पारपेश्षरम।

नित्यानन्दं निराघार॑ निष्कलं परमं शिवम्‌॥७२॥

परपदे परमात्मानं भवनतं परमेश्वरम्‌

उन सर्वसाक्षी और विश्व में व्याप्त शरोर वाले देव को

नमस्कार करता हूँ। जिल्‍्हें निद्रारहित, धासजयी, सन्तुष्ट और

समदर्शौ योग के साधक ज्योतिरूष में देखते हैं, उन योग

स्वरूप को नमस्कार है। जिसके द्वारा योगीजन निष्पाप

होकर अत्यन्त अपारपर्यन्त मायारूप समुद्र को तर जाते हैं,

उन विद्यारूप परमेश्वर को नमस्कार है। जिनके प्रकाश से

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