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डरे

कं अग्निपुराण १

स्थापन करे ॥ १५--२०॥

देवीके स्वरूपका इस प्रकार ध्यान करे-'वे

दिव्य रूपवाली हैं और दिव्य वस्त्राभूषणोँसे

विभूषित हैं।' तत्पश्चात्‌ यह चिन्तन करे कि

*देवीको संतुष्ट करनेके लिये अग्निदेवके रूपमें

साक्षात्‌ श्रीहरि पधारे हैँ ।' साधक (उन दोनोंका

पूजन करके शुद्ध कास्यादि-पात्रमे रखी और

ऊपरसे शुद्ध कांस्यादि पात्रद्वारा ढकी हुई अग्निको

लाकर, क्रव्याद-अंशको अलग करके, ईक्षणादिसे

शोधित उस*) अग्निको कुण्डके भीतर स्थापित

करे। तत्पश्चात्‌ उस अग्निमें प्रादेशमात्र (अँगूठेसे

लेकर तर्जनीके अग्रभागके बराबरकी) समिधाएँ

देकर कुशोंद्वारा तीन बार परिसमृहन करे । फिर

पूर्वादि सभी दिशाओंमें कुशास्तरण करके अग्निकी

उत्तर दिशामें पश्चिमसे आरम्भ करके क्रमशः

पूर्वादि दिशामें पात्रासादन करे- समिधा, कुशा,

सुक्‌, सुवा, आज्यस्थाली, चरुस्थाली तथा

कुशाच्छादित घी, (प्रणीतापात्र, प्रोक्षणीपात्र) आदि

वस्तुं रखे । इसके बाद प्रणीताको सामने रखकर

उसे जलसे भर दे ओर कुशासे प्रणीताका जल

लेकर प्रोक्षणीपात्रका प्रोक्षण करे। तदनन्तर उसे

वारये हाथमे लेकर दाहिने हाथमे गृहीत प्रणीताके

जलसे भर दे। प्रणीता और हाथके बीचमें

पवित्रीका अन्तर रहना चाहिये । प्रोक्षणीमें गिराते

समय प्रणीताके जलको भूमिपर नहीं

गिरने देना चाहिये । प्रोक्षणीमें अग्निदेवका ध्यान

करके उसे कण्टकी योनिके समीप अपने सामने

रखे। फिर उस प्रोक्षणीके जलसे आसादित

वस्तुओंको तीन बार सींचकर समिधाओकि

बोझको खोलकर उसके बन्धनको सरकाकर

सामने रखे। प्रणीतापात्रमे पुष्प छोड़कर उसमें

भगवान्‌ विष्णुका ध्यान करके उसे अग्निसे उत्तर

दिशामें कुशके ऊपर स्थापित कर दे (ओर अग्नि

तथा प्रणीताके मध्य भागमें प्रोक्षणीपात्रको कुशापर

रख दे) ॥ २१--२५॥

तदनन्तर आज्यस्थालीको घीसे भरकर अपने

आगे रखे । फिर उसे आगपर चढ़ाकर सम्प्लवन

एवं उत्पवनकी क्रियाद्वारा घीका संस्कार करे।

(उसकी विधि इस प्रकार है-) प्रादेशमात्र लंबे

दो कुश हाथमें ले। उनके अग्रभाग खण्डित न हुए

हों तथा उनके गर्भे दूसरा कुश अङ्कुरित न

हुआ हो । दोनों हार्थोको उत्तान रखे और उनके

अङ्गुष्ठ एवं कनिष्ठिका अङ्गुलिसे उन कुशोंको

पकड़े रहे । इस तरह उन कुशोंद्वारा घीको थोड़ा-

थोड़ा उठाकर ऊपरकी ओर तीन बार उछाले।

प्रज्वलित तृण आदि लेकर घीको देखे और उसमें

कोई अपद्रव्य (खराब वस्तु) हो तो उसे निकाल

दे। इसके बाद तृण अग्निमें फैंककर उस घीको

आगपरसे उतार ले ओर सामने रखे। फिर सुक्‌

और सुवाको लेकर उनके द्वारा होम-सम्बन्धी

कार्य करे। पहले जलसे उनको धो ले। फिर

अग्निसे तपाकर सम्मार्जन कुशोंद्वारा उनका मार्जन

करे (उन कुशोंके अग्रभागोंद्वारा खुक्‌-ख्तुवाके

भीतरी भागका तथा मूल भागसे उनके बाह्य

भागका मार्जन करना चाहिये)। तत्पश्चात्‌ पुनः

उन्हें जलसे धोकर आगसे तपावे और अपने

दाहिने भागमें स्थापित कर दे। उसके बाद साधक

प्रणवसे ही अथवा देवताके नामके आदिमे

“प्रणव ' तथा अन्ते “नमः” पद लगाकर उसके

उच्वारणपूर्वक होम करे ॥ २६--२९ ३॥

हवनसे पहले अग्निके गभधिनसे लेकर

सम्पूर्णं संस्कार अङ्ग-व्यवस्थाके अनुसार सम्पन्न

* यद्धि शद्धा्रवानीतं शुद्धपात्रोपरिस्थितम्‌ । क्रव्यादांश परित्यज्व ईक्षणादिविज्ञोधितम्‌ ॥ (इति सोभरम्भुः)

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