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डर

* पुराणं परं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम्‌ =

[ संक्षिप्त भविष्यपुताणाडु

पिठृकुछ एबं संततिको कलक न लगते दे । ऐसी कुलैन खसे

ही धर्म, अर्थ तथा काम--इस त्रिवर्गको सिद्धि हो सकती है ।

इसके विपरीत बुरे आचरणयाली स्बियाँ अपने कुल्मेंको नरके

डालती हैं और चरित्रको हो अपना आभूषण माननेवाली शिया

नरकमें गिरि हुओं भी निकाल लेती हैं। जिन लिक चित्त

पतिके अनुकूल है और जिनका उत्तम आचरण है, उनके लिये

रत्र, सुवर्ण आदिके आभूषण भारसरूप ही हैं। अर्थात्‌

खियोके यथार्थं आभूषण ये दो हैं--पतिकी अनुकूलतः और

उत्तम आचरण । जो स्त्री पतिकी और स्थ्रेककी अपने यथोचित

व्यकहारदिसे आराधना करती है अर्थात्‌ पतिके अनुकूल

चलती है और स्ेकञ्यवहारको ठौक-ठौक समझकर

तदनुकूल आचरण करती है, वह सी धर्म, अर्थ तथा फामकी

अवाघसिद्धि प्राप्त कर केती है--

(उ्फ्रपर्ष १३ । ६४--६६)

जिस खक पति परदेशे गया हो, उस ख्रोकों अपने

पतिकी मङ्गलकामनाके सूचक सौधाग्य-सूत्र आदि स्वल्प

आधूषण ही पहनने चाहिये, विज्षेष शृङ्गार नहीं करना चाहिये ।

उसे पति-द्वारा प्रारम्भ किये कार्योंका प्रयन्रपूर्वक सम्पादन

करते रहना चाहिये। यह देहका अधिक संस्कारे न करे ।

णाज्िको सास आदि पूज्य ख्त्रियोंके समीप सोये । बहत अधिक

खर्च न करे । ग्रत, उपयास आदिके नियमोंफा पालन करती

रहे। दैयज्ञ आदि श्रेष्ठजनॉसे पतिके कुझल-क्षेमका वृत्तान्त

जाननेकी कोशिश करे ओर परदेशमें उसके कल्याणकी

कामनासे तथा शीघ्र आगमनकी अधभिलाषासे नित्य

देवताओंका पूजन को। अस्पन्त उज्ज्वल येष न बताये और

न सुगन्धित तैलादि द्रब्योंका प्रयोग करे। उसे सम्बन्धियोंके पर्‌

नहीं जाना चाहिये। यदि किसी आवश्यक कार्यवज्ञ जाना ही

पड़ जाय तो अपनेसे बड़ोंकी आज्ञा लेकर पतिके विश्वसनीय

जनेकि साथ जाय। कितु वहाँ अधिक समयतक न रहे, शीघ्र

वापस लौट आये। वहाँ सान आदि व्यवहारोंको न करे ।

अवाससे पतिके त्परैट आनेपर प्रसन्न-मनसे सुन्दर वस्णाभूषणोंसे

आकृत होकर पतिका योधि भोजनादिसे सत्कार को और

देवताओंसे पतिके छिये मांगी गयी मनौतियोंको पूजादिद्वार

बथाविधि सम्पन्न करे ।

इस प्रकार मन, काणी तथा क्सि सभी अवस्थाओंमें

पतिका हित-चिन्तन करती रहे, क्योंकि पतिके अनुकूल रहना

लेके स्मि विशेष धर्म है। अपने सौभाग्यपर अहंकार न

करे और उद्धत कार्योंक भी न करे तथा अत्यन्त विनग्र भावसे

रहे। इस प्रकारसे पतिकी सेवा करते हुए जो स्त्री पतिके

कार्योमें प्रमाद नहीं करती, पूज्यजनॉंका सदा आदर करती

रहती है, नौकरोंक। भरण-पोषण करती है, नित्य सदगुणोंकी

अभिषुद्धिके लिये प्रयनदीलः रहती है तथा सथ प्रकारसे अपने

सील रक्षा करती रहती है, वह खी इस त्तकः तथा

परल्लेकमें उत्तम सुख एवं उत्तम कीर्ति प्राप्त करती है! ।

जिस सखीपर पति अति क्रोधयुक्त हो और उसका आदर

न को, वह ख्ी दुर्भगा कहलाती है । उसे चाहिये कि वह नित्य

ब्रत-उपवासादि क्रियाओंमें संलूप्र रहे और पतिके याह्य

कार्यों विशेषरूपसे सहयोग करे । जातिसे कोई स्त्री दुर्भगा

अश्वया सुभगा (सौभाग्यझालिनी) नहीं होती। जह अपने

व्यवहारसे ही पतिकी प्रिय और अप्रिय हो जाती है। उत्तम स्त्री

पतिके चित्तका अभिप्राय न जाननेसे, उसके प्रतिकूल चलनेसे

और स््ेकविरुद्ध आचरण करतेसे दुर्भगा हो जाती है एवं

उसके अनुकूल चलनेसे सुभगा हो जाती है। मनोवृत्तिके

अनुकूल कार्य करनेसे परया भी प्रिय हो जाता है और

मनोश्नुकूल कार्य न करतेसे अपना जन भी झोघ झज़ु बन

जाता है। इसलिये स्रीकतो मन, वचन तथा अपने कार्योड्राग

६-श्वनागाध्य भर्तरे._तत्कार्येष्यप्रपादिनो । पूज्यानों पूजने नित्य भुल्काक भरणेषु च ४

गुणानापर्जी नित्थि रुदिकवत्यिरश्तने । पत्य॑ केह च निर्न सुसमाओत्पनुत्तरम्‌ ॥

(जाह्॒पर्ध ६४ । ३१.३२)

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