एक पद है 'यह मेरा नहीं है।' और दूसरा पद है “यह
मेरा है। "यह मेरा है" इस ज्ञानसे वह वंध जाता है, और
"वह मेरा नहीं है" इस ज्ञानसे वह मुक्त हो जाता है-
द्वे पक्षे बन्धमोक्षाय न समेति ममेति च।
ममेति बध्यते जन्तुर्न मपेति प्रमुच्यते ॥
(२।४९। ९३)
जो कर्म जीवात्माको बन्धने नहीं ले जातां वही
सत्कर्म है । जो विद्या प्राणीको मुक्ति प्रदान करनेमें समर्थ
है, वही विद्या है। जबतक प्राणिर्योको कर्म अपनी ओर
आकृष्ट करते हैं, जबतक उनमें सांसारिक वासना विद्यमान
है और जबतक उनकी इन्द्रियोंमें चलता रहती है, तबतक
उन्हें परम तत््वका ज्ञान कहाँ हो सकता है? जबतक
व्यक्तिमें शरौरका अभिमान है, जबतक उसमें ममता है,
जबतक उस प्राणीमें प्रयक्ञकी क्षमता रहती है, जबतक
उसमें संकल्प तथा कल्पना करनेकी शक्ति है, जबतक
उसके मनमें स्थिरता नहीं है, जबतक वह शास्त्रचिन्तन नहीं
करता है तथा उसपर गुरूकी दया नहीं होती है तबतक
उसको परमतत्त्व कहाँसे प्राप्त हो सकता है?
श्रीभगवान् कहते हैं--हे गरुड! उस तत्त्वज्ञका
अन्तिम कृत्य सुनो, जिसके द्वारा ब्रह्मपद या निर्वाण
नामवाला मोक्ष प्राप्त होता है। अन्त समय आ जानेपर पुरुष
अयरहित होकर संयमरूपी शस्त्रसे देहादिकी . .आसक्तिको
काट दे। अनासक्त भावसे धीरवान् पुरुष पवित्र तीर्थमें
जाकर उसके जलम स्नान करे, तदनन्तर वहींपर एकान्त
देशम किसी स्वच्छ एवं शुद्ध भूमिमें विधिवत् आसन
लगाकर बैठ जाय तथा एकाग्रचित्त होकर गायत्री आदि
मन्त्रके द्वारा उस शुद्ध परम ब्रह्माक्षरका ध्यान करे। ब्रह्मके
अीजमन्त्रको बिना भुलाये वह अपने श्वासकौ रोककर
मनको बक्ञमें करे तथा अन्य कर्मोंसे मतको ग्रेककर बुद्धिके
द्वारा शुभकर्ममें लगाये।
“मैं ब्रह्म हूँ' “मैं परम धाम हूँ” 'मैं ही ब्रह्म हूँ' " परम
पद मैं हूँ" इस प्रकारकौ समीक्षा करके निष्कल आत्मा
मनको प्रविष्ट करना चाहिये। जो मनुष्य " ॐ> ' इस एकाक्षर
मन्त्रका जप करता हैं, वह अपने शरीरका परित्याग कर
परम पदको प्राप्त करता है।
पान-मोहसे रहित, आसक्तिदोषसे परे, नित्य अध्यात्म-
चिन्तनमें दत्तचित्त, सांसारिक समस्ते कामताओंसे रहित
और सुख-दुःख नामके द्वन्द्डसे मुक्त ज्ञानी पुरुष ही उस
अव्यय पदको प्राप्त करते हैं।
प्रौढ वैराग्ये स्थित हो करके अनन्य भावसे जो
व्यक्ति मेरा भजन करता है, वह पूर्णदृष्टिवाला प्रसन्नात्मा
व्यक्ति मोक्ष प्राप्त करता है।
घर छोड़कर मरनेकी अभिलाषासे जो तीर्थम निवास
करता है और मुक्तिक्षेत्रमें मरता है, उसे मुक्ति प्राप्त होती है।
हे तार्य! ज्ञान तथा वैराग्यसे युक्त यह सनातन
मोक्षधर्म ऐसा ही है, उसको तुम्हें सुना भी दिया है।
तत्त्वज्ञ मोक्ष प्राप्त करते हैं। धर्मनिष्ठ स्वर्ग जाते हैं,
पापौ नरकमें जाते हैं। पक्षी आदि इस संसारमें अन्य
योनियॉमें प्रविष्ट होकर घूमते रहते है
मोक्षं गच्छन्ति तत्त्जज्ञा धार्भिकाः स्वर्गतिं नराः ।
पापिनो दुर्गलिं यान्ति संसरन्ति खगादयः ॥
(२। ४९। ११६)
अपने प्रश्नोकि उत्तरके रूपये भगवानूके मुखसे इस
प्रकार सिद्धान्तको सुनकर प्रसन्न शरीरवाले गरुडने जगदीश्चवरको
प्रणाम किया और कहा--'प्रभो! आपके इन आह्वादकारी
बचनोंसे मेरा बहुत बड़ा संदेह दूर हो गया।' ऐसा कहकर
उन्होंने भगवान् विष्णुसे आज्ञा ली और वै कश्यपजीके
आश्रममें चले गये।
यह गरुडमहापुराण बड़ा हो पवित्र और पुण्यदायक
है। यह सभी पापोंका विनाशक एवं सुननेवालॉकी समस्त
कामनाओंका पूरक है। इसका सदैव श्रवण करना चाहिये-
पुराण गारुड पुण्य॑ पशित्र॑ पापताशनम्।
श्रृण्वतां कामनापूरं॑श्रोतव्यं॑सर्वदैव हि ॥
(२। ४९। १३२)
जो मनुष्य इस महापुराणको सुने या जैसे भी हो
वैसे ही इसका पाठ करे तो वह प्राणी यमराजकौ
भयंकर यातनाओंको तोड़कर निष्पाप होकर स्वर्गको प्राप्त
करता है--
यश्चेदं श्रृणुयान्मत्यों यश्चापि परिकीर्तयेत्।
विहाय यातनां घोरां धूतपापो दियं ख्रजेत्॥
(२।४९। १३६)
राधेश्याम खेमका
र.