किसी अन्यसे सम्पन्न करायें और स्नान, उपवासादि
कायिक कार्य स्वयं करें।
यदि क्रोध, प्रमाद अथवा लोभवज्ञ किसीका व्रते भंग
हो जाता है तो उसको तीन दिनतक उपयास करके
ब्रह्माजीने कहा-हे व्यास! अब रयै प्रतिपदादि
तिथियोंके ब्रतोकी विधियॉका वर्णन करूँगा। आप उनका
श्रवणं कर । प्रतिपदा तिथिके एक विशेष वद्रतका नाम
शिखिव्रत है। इस व्रतकौ करनेसे व्रती वैश्वानर-पद प्राप्त
करता है। प्रतिपदा तिथिमें एकभक्तव्रतं करके दिनमें एक
बार भोजन करना चाहिये। ख़तकी समाप्तिपर कपिला गौका
दान करे। चैत्रमासके प्रारम्भमें विधिपूर्वक सुन्दर गन्ध,
पुष्प, माला आदिसे ब्रह्माकी पूजा और हवन करनेसे सभी
अभीष्ट फलोंकी प्राप्ति होती है । कार्तिकमासमें शुक्लपक्षकी
अष्टमी तिधिको ब्रत पुष्प और उनसे बनी हुई घालाका
दान करे। यह क्रम वर्षपर्यन््त चलना चाहिये। ऐसा करनेसे
रूपकी इच्छा करनेवाले त्रतीको रूप-सौन्दर्यकौ प्राप्ति
होती है।
श्राथणमासके कृष्णपक्षकी तृतीया तिथिमें लक्ष्मीके
साथ भगवान् शत्रीधरविष्णुकों सुसज्जित शय्यापर स्थापित
कर उनकी पूजा करे और फलकी भेंट चढ़ाये। इसके बाद
उस शब्यादिका दान ब्राह्मणको करके ब्रत्री ' श्रीधराय
नमः, श्रियै नमरः" यह प्रार्थना करे । इसी तृतीया तिथिको
उमा-शिव और अभ्निकी पूजा करनी चाहिये । व्रती इन
सभीको हविष्यान्न, वैवेद्य और दमतक (श्रेत कमल) -का
निवेदन करे।
फाल्गुनादिमें तृतीयाका व्रत करनेवाले पनुष्यको नमक
नहो खाना चाहिये। व्रतके समाप्त होनेपर सपत्रीक
ब्राह्मणकी पूजा करके अन्न, शय्या, पात्रादि उपस्करोंसे युक्त
घरका दान "भवानी प्रीयताम्' “भवानी प्रसन्न हों' ऐसा
कहकर करना चाहिये। ऐसा करनेसे ब्रतौको अन्त समयमे
भवानौका लोक प्राप्त होता हैं और इस लोकमें शरेष्ठ सुख
तथा सौभाग्यकी प्राप्ति होती है।
मार्गशीर्षमासक्छौ तृतीया तिथिमें गौरी तथा चतुर्थी आदि
तिथियों क्रमश:-काली, उमा, भद्रा, दुर्गा, कान्ति,
सरस्वती, मंगला, वैष्णयी, लक्ष्मी, शिवा तथा नातयणीदेवीकी
पूजा करनी चाहिये । इनकी पूजा करनेसे व्रतौ प्रियजनोँसे
शिरोमुण्डने करा देनो चाहिये । शरीरके असमर्थ हो जानेपर
व्रतौको अपने पुत्रादिसे ब्रत कराना चाहिये । यदि व्रतकालं
ब्रती मूर्च्छित हो जाता है तो उसे जल आदि पिला देना
चाहिये । इससे व्रतभंग नहीं होता। (अध्याय १२८)
प्रतिपदा, तृतीया, चतुथी तथा पञ्चमीम किये जानेवाले विविध तिथित्रत
होनेवाले वियोगादि कष्टोंसे मुछ हो जाता है।
माघमासके शुक्लपक्षे चतुर्थीं तिथिको निराहार रहकर
त्रत करते हुए व्रती ब्राह्मणको तिलका दानकर स्वयं तिल
एवं जलक! आहार करे । इस प्रकार प्रतिमास वतत करते हुए
दो वर्ष बीतनेपर इस व्रतको समाप्त कर देना चाहिये । ऐसा
करनेसे जीवने किसी प्रकारका विध्न आदि प्राप्त नहीं
होता। चतुर्थी तिथिमें गणोंके अधिनायक गणपतिदेवकी
यधाविधि पूजा करनी चाहिये- पूजामें ' ॐ गः स्वाहा" यह
प्रणवसे युक्त मूल मन्त्र है। पूजामें अङ्गन्यास इस प्रकारसे
करना चाहिये-
ॐ ग्लौः ग्लां दयाय जपः (दाहिने हाथकी पवो
अँगुलियोंसे हृदयका स्पर्श) । ॐ गां गीं गूं शिरसे स्वाहा
(सिका स्यर्श)। ॐ हूं हीं हीं शिखायै वषट्
(शिखाका स्पर्शं )। ॐ गूं कवचाय वर्मणे हुम् (दाहिने
हाथकी अँगुलियोंसे बायें कंधेका और बायें हाथकों
अँगुलियोते दाहिने कंधेका साथ ही स्पर्श)। ॐ गौ
नेन्रत्रयाय वौषट् (दाहिने हाथकौ अओँगुलियोकि अप्रभागसे
दोनों नेत्रों और ललाटके मध्यभागका स्पशं) । ॐ गों
अस्वाय फट् (यह वाक्य पढ़कर दाहिने हाधको सिरके
ऊपरसे बायीं ओरसे पीछेकी ओर ले जाकर दाहिनौ ओरसे
आगेकी ओर ले आये ओर तर्जनों तथा मध्यमा ओँगुलि्योसे
बायें हाथकी हथेलीपर ताली बजाये)।
आवाहनादियें निप्नाद्धित मन््त्रोंका प्रयोग करना चाहिये।
यथा--
आगच्छोल्काय गन्धोल्कः पुष्पोल्कों धृपकोल्कक:।
दीपोल्काय महोल्काय बलिश्चाध विस (मा) ज॑नम्॥
हे गन्थोल्क, हे पुष्पोल्क, हे धूपकोल्क अर्धात् हे
गन्थ, पुष्प तथा धूपमें तेजःस्वरूप विद्यमान रहनेवाले देव!
आप इस रचित पूजामण्डल्मे स्थित दीपकरमे तेज प्रदान
करके लिये, महातेज देनेके लिये, बलि और धिसर्जनतक
विद्यमान रहनेके लिये यहाँ उपस्थित हो !
आवाहनके पश्चात् गायत्रीमन्त्रसे अगुष्ठादिका न्यास