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* पुराणं गारुडं वक्ष्ये मारं चिष्णुकधाश्रयम्‌ *

[ संशषिप्त गरुङ़पुराणाङ्क

| जब अब 5 433440 4644 42 43:40 404 44. ई

त्वत्प्रसादान्मया देव व्रतमद्य समांपितम्‌॥

प्रसन्नो धव ये श्रीमन्‌ गृहं प्रति च गधष्यताम्‌।

त्वदालोकनपात्रेण पविग्रोऽस्मि न संशय:॥

(१२४। १७- १९)

है देव! हे नाध! हे जैलोक्याधिपति स्वामिन्‌ शिव!

आपकी कृपासे मैं स्रतको निर्विघ्न सम्पन्न कर सका हूँ और

आपको यह पूजा भी पूर्ण हो सको है। आप मुझे क्षमा करें।

है देव! सैंने जो कुछ आज पुण्य किया है, भगवान्‌ स्द्रको

जो कुछ निवेदित किया है, वह सब आपकी कृपासे ही

हुआ है। आपकी हौ कृपासे यह व्रत भौ आज समाप्त

किया जा रहा है। श्रीमत्‌! आप मेरे ऊपर प्रसन्न हों। आप

अपने लोककों अब प्रस्थान करें। आपका दर्शनमात्र

प्राप्तकर मैं निस्संदेह पवित्र हो गया हूँ।

व्रती ध्याननिष्ठ ब्राह्मणकों भोजनसे संतृप्त कर वस्त्र-

छत्रादि दे। तदनन्तर बह पुनः इस प्रकार प्रार्थना करे-

देवादिदेव भूतेश लोकानुग्रहकारक॥

यन्या श्रद्धया दत्तं प्रीयतां तेन पे प्रभुः।

(१२४॥ २०-२१)

हे देवादिदेव! समस्त प्राणिजगतूके स्वामिन्‌, संसारपर

कृपा रखनेवाले प्रभो! श्रद्धापूर्वक मैंने जो कुछ आपको

समर्पित किया है, उससे आप प्रसन्न हों।

इस प्रकार क्षमापन-स्तुति करनेके पश्चात्‌ ब्रतीको

द्वादश-वार्षिक व्रतका संकल्प लेना चाहिये। ऐसा करके

व्रती कौर्ति, लक्ष्मी, पुत्र तथा राज्यादिके सुख-यैभवको

प्राप्तकर अन्तमें शिवलोकको प्राप्त करता है। ब्रतधारौ

आरहों मासमें भी इस व्रतके जागरणको पूर्ण करके यदि

द्वादश ब्राह्मणोंकों भोजन प्रदान करे और दीपदान करे तो

उसे स्वर्गकी प्राप्ति होती है। (अध्याय १२४)

एकादशीमाहात्म्य

पितामहने कहा--मान्धाता नामके एक राजा थे,

जिन्होंते एकादशीव्रत करके उसके पुण्यसे चक्रवर्ती

सम्राटकी उपाधि धारण की थी। अत: कृष्ण एवं शुक्ल

दोनों पक्षकी एकादशी तिथिमें मनुष्यकों भोजन नहाँ

करना चाहिये।

गान्धारीने दशमीविद्धा एकादज्ञीका भ्रत किया था,

जिसके फलस्वरूप उसके सौ पुत्रॉका विनाश उसके

जीवनकालमें ही हो गया था। इसलिये दशमीसे युक्त

एकादज्ञौका व्रते नहीं करना चाहिये। द्वादशीके साथ

एकादशी होनेपर उस एकादशोमें भगवान्‌ हरिका संनिधात

रहता है। जिस पास दशपीवेधसे युक्त एकादशी होतो है,

उसमे असुरोंका संनिधान होता है। जब विभिन्न शास्त्रोमें

कहे गये वाक्योंकी बहुलतासे अज्ञतावश संदेह बढ़ जाता

है तो उस परिस्थितिमें द्वादशी तिथिकों व्रत करके त्रयोदशौ

तिधिमें पारणा कर लेनौ चाहिये। यदि एकादशी एक

कलामात्र भी कालगणनामें रहती है तो द्वादशी (युक्त

एकादशी) त्िथिको यह त्रत उपास्य है। यदि एकादशौ,

द्वादशी और विशेष रूपसे त्रयोदशी तिथि भी एक ही दित

आ जातौ है तो इन तीन तिथियॉसे मिश्रित वह तिथि त्रत

करने योग्य होती है, क्योकि वह तिथि पाङ्गलिक एवं सभी

पापोंका विनाश करनेमें समर्थ होती है।

है द्विजराज! एकादज्ी अथवा द्वादशीका ब्रत करके

तीन तिथियोंसे मिश्रित अर्थात्‌ एकादशी, द्वादशी और

त्रयोदशौ तिधिसे समन्वित तिथिपर ब्रत कर लेना उचित

है, किंतु दशमीवेधसे युक्त एकादशीका त्रत कभी नहीं

करना चाहिये।

रातमें जागरण तथा पुराणका श्रवण एवं गदाधर

विष्णुकी पूजा करते हुए दोनों पक्षॉंकी एकादशीका व्रत कर

महाराज रुक्‍्माड्भदने मोक्ष प्राप्त किया था। अन्य एकादशी

ब्रतकर्ताओंने भी मोक्ष प्राप्त किया है। (अध्याय १२५)

विष्णुमण्डल-पूजाविधि

भ्रह्माजीने कहा-जिस पूजको करनेसे लोग परमगतिको

प्राप्त हो गये हैं, मैं उसौ भक्ति एवं मुक्ति देनेमें समर्थ श्रेष्ठ

पूजाका विधियत्‌ यर्णन करूँगा।

ब्रतौको सर्वप्रथम एक सामान्य पूजमण्डलका निर्माण

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