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५२ अश्वः संहिता भाग!

१२८५. यां ते चक्र: पुरुषास्थे अगौ संकसुके च याम्‌।

प्रोकं निर्दह क्रव्यादं पुन प्रति हरामि ताम्‌॥९॥

बिस कृत्या को अभिचारो ने मनु की हड्डी में किया है, जिसको प्रज्वलित अमि में किया है, उस कृत्य

को हम चोरौ से अमि प्रसित कसे वाले मांसभक्षी अभिचारो के ऊपर एनः लौटते हैं ॥९ ॥

१२८८. अपथेना जभारेणां ता पथेत: प्र हिप्मसि।

अधीर पर्याधीरेभ्य: सं जभाराचित्या ॥१० ॥

जे मनुष्य अज्ञासतावश कुर्ग सेह मर्यादापालकों पर कतय को भेजता है, हम उसको उषी मार्ग से उसके

ऊप भेजते हैं ॥१० ॥

१२८९. यक्षकार न शशाक कतुं शश्रे पदमङ्गरि्‌।

चकार भद्रमस्मभ्यमभगो प्रवद्य ॥११॥

. जो मनुष्य हमारे ऊपर कृतय प्रयोग करके हमारी अंगुलियों तथा पैरों को विन करना चाहो ह वे वैसा करे

र सक्षम न हों; वे जभ हम भाग्यशालियों के लिए कल्याण ही कं ॥ ११॥

१२९०. कृत्याकृतं वलगितं मूलिनं शपथेय्यप्‌।

इर्त हनु पहता वधेनामिर्विध्यतवस्तया ॥१२॥

गु रुप से कम कसे वालों, गालियाँ देने वालों और अनत दुख देने वालों को इद्रदेव अपने विशाल

हथियारों से षट क डालें और अगिदेव अपनी ज्वालाओं से बींध डालें ॥१ २ ॥

॥इति पञ्चमं काण्डं समातम्‌॥

"लक 2३००--

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