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* संक्षिप्त ब्ह्मवैवर्तपुराण #

भगवान्‌ शंकरको कन्यादान किया धा। इसलिये

उन्हें चौथाई पुण्यकी ही प्राप्ति हुई। अतएव वे

सारूप्य मोक्षको न पाकर तुच्छ सृष्टिका ही

अधिकार प्राप्त कर सके। देवताओ! तुम्हीं

लोगोंमेंसे कोई हिमवानूके घर जाकर अपने मतके |

अनुसार कार्य करे और प्रयत्नपूर्वक शैलराजके

मनमें अश्रद्धा उत्पन्न करे। अनिच्छासे कन्यादान |

करके गिरिराज हिमवान्‌ सुखपूर्वक भारतवर्षे

स्थित रहें। भक्तिपूर्वक शिवको पुत्री देकर तो

वे निश्चय ही मोक्ष प्राप्त कर लेंगे। अश्रद्धा उत्पन्न

होनेके बाद अरुन्धतीको साथ ले सब सप्तर्षि

अवश्य ही गिरिराजके घर जाकर उन्हें समझायेंगे।

दुर्गा शिवके सिवा दूसरे किसी वरका वरण नहीं

करेगी । उस दशामे पुत्रीक आग्रहसे वे अनिच्छापूर्वक

शिवको अपनी कन्या देंगे। इस प्रकार मैंने अपना

सारा विचार व्यक्त कर दिया। अब देवत्तालोग

अपने-अपने घरको पधार ।

यों कहकर बृहस्पतिजी शीघ्र ही तपस्याके

लिये आकाशगड़ाके तटपर चले गये।

(अध्याय ४०)

~

ब्रह्माजीकी आज्ञासे देवताओंका शिवजीसे शैलराजके घर जानेका अनुरोध करना,

शिवका ब्राह्मण-बेषमें जाकर अपनी ही निन्दा करके शैलराजके मने अश्रद्धा

उत्पन्न करना, मेनाका पुत्रीको साथ ले कोप-भवनमें प्रवेश ओर शिवको

कन्या न देनेके लिये दृढ़ निश्चय, सपर्षियों ओर अरुन्धतीका आगमन

तथा शैलराज एवं मेनाको समझाना, वसिष्ठ ओर हिमवान्‌की

बातचीत, शिवकी महत्ता तथा देवताओंकी प्रबलताका

प्रतिपादन, प्रसङ्खवश राजा अनरण्य, उनकी पुत्री

पद्या तथा पिप्पलाद मुनिकी कथा

श्रीकृष्ण कहते हैँ -- तब देवतालोग आपसमें

विचार करके ब्रह्माजीके निकट गये। वहाँ

उन्होने उन लोकनाथ ब्रह्मासे अपना अभिप्राय |

निवेदन किया।

देवता बोले- संसारकी सृष्टि करनेवाले

पितामह ! आपकी सृष्टम हिमालय सब रन्नोका

होनेवाला तथा नीतिका

नहीं है। इसलिये आप उनके घर जाइये ।

देवताओंकी यह बात सुनकर स्वयं ब्रह्माजी

उनसे कानोंको अमृतके समान मधुर प्रतीत

सारभूत उत्तम

वचन बोले।

ब्रह्माजीने कहा-- वच्चो ! मैं शिवकी निन्दा

आधार है। वह यदि मोक्षको प्राप्त हो जायगा | करनेमें समर्थं नहीं हूं । यह अत्यन्त दुष्कर कार्य

तो पृथ्वी रत्गर्भां कैसे कहलायेगी ? शुलपाणि| है। शिवकी निन्दा सम्पत्तिका नाश करनेवाली

शंकरको भक्तिपूर्वकं अपनी पुत्रौ देकर शैलराज | ओर विपत्तिका बीज है । तुमलोग भूतनाथ शिवको

स्वयं नारायणका सारूप्य प्राप्त कर लेगे- इसे | ही वहाँ भेजो । वे स्वयं अपनी निन्दा करं । पराय

संशय नहीं है । अतः आप शिवकी निन्दा करके | निन्दा विनाशका और अपनी निन्दा यशका कारण

गिरिराजके मनमें अश्रद्धा उत्पन्न कौजिये। प्रभो! | होती है*।

आपके सिवा दूसरा कोई यह कार्य करनेमें समर्थ प्रिये! ब्रह्माजीका वचन सुनकर उन्हें प्रणाम

* परनिन्दा विनाशाय स्वनिन्दा यशसे परम्‌। (४१। ७)

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