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२३२ ] [ ब्रह्माण्ड पुराण

सहस्रमहिषारूढा: प्रचेलु: सूकरानना: ।

अथ श्रीदंडनाथा च करिचक्र रथोत्तमात्‌ ॥८

अवरुह्य महासिहमा रुरोह स्ववाहनम्‌ ।

वचचघोष इति ख्यातं धूतकेसरमं डलम्‌ ॥।€

व्यक्तास्यं विकटाकारं विशंकटिलो चनम्‌ ।

दंष्ट्राकटकटत्का रबधि रीकृतदिक्तटम्‌ ।। १०

प्रतिमे क भे

आदिकृमंकठोरास्थि खर्परप्रतिमेनंखे: ।

पिबंतमिव भूचक्रमापातालं निमज्जिभिः ॥ ११

योजनत्रयमृत्तु गं वेगादुद्धतवालधिम्‌ ।

सिहवाहनमारुद्य व्यचलद्‌ डनायिका ॥१२

तस्यामसुरसंहारे प्रवृत्तायां ज्वलत्क्रधि ।

उद्वेंगं बहुलं प्राप त्रौलोक्यं सचराचरम्‌ ॥१३

किमसौ धक्ष्यति रुषा विश्वमद्यैव पोत्रिणी ।

कि वा मुसलघातेन भूर्मि द्वेधा करिष्यति ।।१४

सूकरके समान जिनका मुख धा ऐसी अनेक णक्तियां सहस्रों महिषौ

पर समारूढ़ होकर वहाँ पर चली धीं । इसके अनन्तर वह श्रीदण्डनाधा

देवी अपने करिचक्र उत्तम रथ से नीचे उतरीं औप अपने प्रमुख वाहन

महासिंह के ऊपर समारूढ हो गयी थीं । उसका नाम व्र घोर प्रसिद्ध था

जो अपने केसरो के मण्डल को कम्पित कर रहा या । इसका मुख खुला

हुआ था तथा परम भीषण आकार वाला था एवं उसके लोचन विक्ष॑कट

थे । वह अपनी दाढ़ों को कटकटा रहा था जिसकी कटकटा हट से सभी

दिशाए वधिरीभूत हो गथी थीं ।८-१०। उसकी अस्थियां आदि कमं के

सहश कठोर थीं और उसके नख खपंर के समान विशाल थे । जो पाताल

तक निमज्जित होकर इस भूमण्डल को पी से रहे थे ।११। यह तीन योजन

तक ऊंचा था और बड़े वेग से अपनी पूछ को हिला रहा था। ऐसे अपने

सिंह के वाहन पर समारूढ़ होकर बह महादेवी दण्ड नायिका चली थीं ।१२।

समस्त अंसुरों के संहार करने में जब वह श्रवृत्त हुई थी तो उस समय में

उसकी क्रोध प्रज्वलित हो गया था और उसके प्रभाव से चराचर तीनों

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