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* पुराणै परम पुण्ये विष्यं सवंसौरष्यदम् *
{ संक्षिप्त भविष्यपुराणाडु
नमः' चथा 'भौमाय नमः' कहकर यूपके लिये त्परजा निवेदित
करें। "मपि गृहणाभ्यः" (यजुः १३।१)इस मन्तसे
रुद्रमूर्ति-स्वरूप उस यूपकी पञ्छोपचार-पुजा करें। आचार्यकों
अन्न, वस्र और दक्षिणा दे तथा होता एवं अन्य ऋत्विजोंको
भी अभीष्ट दक्षिणा दे। इसके बाद उस गोचरभूमिमे रत्र
छोडकर इस मन्तरको पढ़ते हुए गोचरभूमिका उत्सर्ग कर दे--
रिचत्मेकस्तथा गावः सर्वदेखसुपुजिता: ॥
गोभ्य एषा पया भूमि: सप्प्रद्ता शुभार्थिना ।
(मध्यमपर्वं ३।२। १२-१३)
“शिवल्मेकखरूप यह गोचरभूमि, गोत्तेक तथा गौत
सभी देवताओंद्रार पूजित हैं, इसलिये कल्याणक कामनासे
मैंने यह भूमि गौओंके लिये प्रदान कर दी है।'
इस प्रकार जो समाहित-चित्त होकर गौओकि लिये
गोचरभूमि समर्पित करता है, वह सभी पापोंसे मुक्त होकर
विष्णुललोकमें पृजित होता है। गोचरभूमिमें जितनी संख्यामे
तृष्ण, गुल्म उगते हैं, उतने हजारों वर्षतक वह स्वर्ग्ेकमे
प्रतिष्ठित होता है। गोचरभूमिकी सीमा भी निश्चित करनी
चाहिये। उस भूमिकी रक्षाके लिये पूर्वम वृक्क रोपण करे ।
दक्षिणमें सेतु (मेड़) बनाये। पश्चिमे कैंटीले वृक्ष लगाये
और उत्तरमें कृपका निर्माण करे। ऐसा करनेसे कोई भी
गोचरभूमिकी सीमाका लखन नहीं कर सकेगा। उस भूमिको
जलधारा और घाससे परिपूर्ण करे । नगर या ग्रामके दक्षिण
दिश्ञामें गोचरभूमि छोड़नी चाहिये। जो व्यक्ति किसी अन्य
प्रयोजनसे गोचरभूमिकों ओतता, खोदता या नष्ट करता है, वह
अपने कुर्क पातकी बनाता है और अनेक ब्रह्म-हत्याओसे
आक्रान्त हो जाता है।
जो भीति दक्षिणाके साथ गोचर्म-भूमिका' दान
करता है, यह उस भूमिमें जितने तृण हैं, उतने समयतक स्वर्ग
और विष्णुल्मेकसे च्युत न होता । गोचर-भूषमि छोड़नेके बाद
ब्रह्मणोको संतुष्ट करे । वृषोत्सर्गयें जो भूमि-दान करता है, वह
प्रेतयोनिको प्राप्त नहीं होता । गोचर-भूमिके उत्सर्गके समय जो
मण्डप बनाया जाता है, उसमें भगवान् वासुदेव और सूर्यका
पूजन तथा तिल, गुड़की आठ-आठ आहूतियोंसे हवन करना
चाहिये । 'देहि मे” (यजु ३। ५०) इस मन्से मण्डपके
ऊपर चार झुफ़ घट स्थापित करे । अनन्तर सौर-सूक्त और
वैष्णव-सुक्तका पाठ करें। आठ बटपत्रॉपर आठ दिक्पाल
देवताओंके चित्र या प्रतिमा बनाकर उन्हें पूर्वादि आठ
दिज्ञाओंमें स्थापित करे और पूर्वादि दि्ाओंके अधिपतियों--
इन्द्र, अत्रि, यम, निति आदिसे गोचरभूमिकी रक्षाके त्त्यि
प्रार्थना करे । प्रार्थनाके बाद चारों वर्णोंकी, मृग एवं पक्षियोकौ
अवस्थितिके लिये विदेषरूपसे भगवान् वासुदेवकी प्रसन्नताके
स्यि गोचरभूमिका उत्सर्जन करना चाहिये । गोचरभूमिके नष्ट-
अष्ट हो जानेपर, घासके जौर्ण हो जानेपर तथा पुनः घास
उगानेके लिये पूर्ववत् प्रतिष्ठा करनी चाहिये, जिससे गोचरभूमि
अक्षय बनी रहे। प्रतिष्ठाकार्यके निमित्त भूमिके खोदने आदिमे
कोई जीव-जन्तु मर जाय तो उससे मुझे पाप न लगे, प्रत्युत
धर्म ही हो और इस गोचरभूमिमें निवास करनेवाले मनुष्ये,
पशु-पक्षियों, जीव-जन्तुओको आपके अनुग्रहसे निरन्तर
कल्याण हो ऐसी भगकानूसे प्रार्थना करनी चाहिये। अनन्तर
गोचरभूमिको त्रिगुणित पवित्र धागेद्रारा सात बार आवेष्टित कर
दे। आवेष्टनके समय 'सुन्नामाणं पृदिवी (ऋः
१०।६३।१०) इस चाकर पाट करे । अनन्तर आचार्यको
दक्षिणा दे । मण्डपमें ब्राह्मणोंको भोजन कराये । दीन, अन्ध
एवं कृपणो संतुष्ट करे । इसके आद मङ्ग -ध्वनिके साथ
अपने घरमे प्रवेश करे । इसी प्रकार तालच, कुआं, कूप
आदिकी भी प्रतिष्ठा करनो चाहिये, विदोषरूपसे उसमे
वरुणदेवको और नागॉकी पूजा करनी चाहिये ।
ब्राह्मणो ! अब मैं छोटे एवं साधारण उद्यानोंकी प्रतिष्ठाके
विषयमें बता रहा हूँ। इसमें मण्डल नहीं बनाना चाहिये।
बल्कि शुभ स्थानमें दो हाथके स्थप्डिलूपर कलद्रा स्थापित
करना चाहिये । उसपर भगवान् विष्णु और सोमकी अर्चना
करनी चाहिये। केवल आचार्यका वरण करे। सूत्रसे वृक्षोको
आवेष्टित कर पुष्प-मालाओंसे अकृत करे । अनन्तर
जलधारसे वृक्षौको संचि । पाँच ब्राह्मणोंक्रो भोजन कराये ।
१-वौ दतै युपक्षेकों यत्र तिप्ठत्ययन्त्रित: । नद्गोचरफैते विख्यात दत्ते सर्वाधनाशनम् ॥
जिस गोचर-भूषिमे सौ गायें और एक बैल स्वतन्त्र रूपसे शिल करते हों, यह भूमि गोच भूमि कङल्याती है। ऐसी भूमिक दान् कानेसे
सभी फापोंका नाद होता है । अन्य सुहस्यति, युद्धहारीत, शातातप आदि स्पृतियोंके मघे कये; ३,००० हाथ कैयी-धौड़ों भुमिको संज्ञा ऐोयर्स है।