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शिखरके चार भाग करके नीचेके दो भागोंकी

शुकनासिका' (गुंबज) संज्ञा है। तीसरे भागमें

बेदीकी प्रतिष्ठा है। इससे आगेका जो भाग है,

वही “अमलसार' नामसे प्रसिद्ध “कण्ठ' है।

वैराज, पुष्पक, कैलास, मणिक और त्रिविष्टप--

ये पाँच ही प्रासाद मेरुके शिखरपर विराजमान है ।

(अत: प्रासादके ये ही पाँच मुख्य भेद माने

गये हैं।) ॥ ९-१११९॥

इनमें पहला ' वैराज ' नामवाला प्रासाद चतुरस

(चौकोर) होता है । दूसरा (पुष्पक) चतुरसरायत

है । तीसरा (कैलास) वृत्ताकार है। चौथा (मणिक)

वृत्तायत है तथा पाँचवाँ (त्रिविष्टप) अष्टकोणाकार

है । इनमेंसे प्रत्येकके नौ-नौ भेद होनेके कारण

कुल मिलाकर पैंतालीस भेद हैं। पहला प्रासाद

मेरु, दूसरा मन्दर, तीसरा विमान, चौथा भद्र,

पाँचवाँ सर्वतोभद्र, छठा रुचक, सातवँ नन्दक

(अथवा नन्दन), आठवाँ वर्धमान नन्दि अर्थात्‌ | सौ

नन्दिवर्धन और नवां श्रीवत्स-ये नौ प्रासाद

"वैराज ^के कुलमें प्रकर हुए है ॥ १२--१५॥

वलभी, गृहराज, शालागृह, मन्दिर, विशाल-

चमस, ब्रह्म-मन्दिर्‌, भुवन, प्रभव और

शिविकावेश्म -ये नौ प्रासाद ' पुष्यक' से प्रकट

हुए हैं। वलय, दुंदुभि, पद्म, महापद्म, वर्धनी,

उष्णीष, शङ्ख, कलश तथा खवृक्ष- ये नौ वृत्ताकार

प्रासाद ` कैलास" कुलमें उत्पन्न हुए हैं। गज,

वृषभ, हंस, गरुत्मान्‌, ऋक्षनायक, भूषण, भूधर्‌,

श्रीजय तथा पृथ्वीधर-ये नौ वृत्तायत प्रासाद

"मणिक" नामक मुख्य प्रासादसे प्रकट हुए हैं।

बज़, चक्र, स्वस्तिक, वज़स्वस्तिक (अथवा

वज्रहस्तक), चित्र, स्वस्तिक-खड़, गदा, श्रीकण्ठ

और विजय -ये नौ प्रासाद “त्रिविष्टप'से प्रकट

हुए है ॥ १६--२१॥

ये नगरोंकी भी संज्ञां हैं। ये ही लाट

आदिकौ भी संज्ञाएँ ह । शिखरकी जो ग्रीवा (या

कण्ठ) है, उसके आधे भागके बराबर ऊँचा चूल

(चोटी) हो। उसकी मोटाई कण्टके तृतीयाँशके

बराबर हो । वेदीके दस भाग करके पाँच भागोंद्वारा

स्कन्धका विस्तार करना चाहिये, तीन भागोंद्वारा

कण्ठ और चार भार्गोदाय उसका अण्ड (या

प्रचण्ड) बनाना चाहिये ॥ २२-२३॥

पूर्वादि दिशाओमिं ही द्वार रखने चाहिये,

कोणोंमें कदापि नहीं | पिण्डिका-विस्तार कोणतक

जाना चाहिये, मध्यम भागतक उसकी संमाति

हो--ऐसा विधान है । कहीं-कहीं द्वारोंकी ऊँचाई

गर्भके चौथे या पाँचवें भागसे दूनी रखनी चाहिये।

अथवा इस विषयको अन्य प्रकारसे भी बताया

जाता है। एक सौ साठ अन्गुलकी ऊँचाईसे लेकर

दस-दस अकुल घटाते हुए जो चार द्वार बनते हैं,

वे उत्तम माने गये हैं (जैसे १६०, १५०, १४०

ओर १३० अब्जुलतक ऊँचे द्वार उत्तम कोटिमें

गिने जाते है) । एक सौ बीस, एक सौ दस और

अङ्गुल ऊँचे द्वार मध्यम श्रेणीके अन्तर्गत हैं

तथा इससे कम ९०, ८० और ७० अङ्गुल

ऊँचे द्वार कनिष्ठ कोटिके बताये गये हैँ । द्वारकी

जितनी ऊँचाई हो, उससे आधी उसकी चौड़ाई

होनी चाहिये। ऊँचाई उक्त मापसे तीन, चार,

आठ या दस अन्लुल भी हो तो शुभ है। ऊँचाईसे

एक चौथाई विस्तार होना चाहिये, दरवाजेकी

शाखाओं (बाजुओं)-का अथवा उन सबकी ही

चौडाई द्वारकी चौड़ाईसे आधी होनी चाहिये--

ऐसा बताया गया है। तीन, पाँच, सात तथा

नौ शाखाओंद्वारा निर्मित द्वार अभीष्ट फलको

देनेवाला है॥ २४-२९ ॥

नीचेकी जो शाखा है उसके एक चौथाई

भागे दो द्वारपालोंकी स्थापना करे । शेष शाखाओंको

स्त्री-पुरुषोके जोडेकी आकृतियोंसे विभूषित करे।

द्वारके ठीक सामने खंभा षडे तो “स्तम्भवेध'

नामक दोष होता है । इससे गृहस्वामीको दासता

प्राप्त होती है। वृक्षसे वेध हो तो ऐश्वर्यका नाश

होता है, कूपसे वेध हो तो भयकी प्राप्ति होती

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