७६ | ः ब्रह्माण्ड पुराण
सहसो किरणे म्नात किरणें होकर एक-एक किरण एक-एक सूयं हो जाता है
।४४-४५। वे सबसे उत्थित होते हुए तीनों छोकों को प्रदग्ध कर देते हैं ।
उस दाह में चर प्राणी-स्थावर अर्थात् अचर और सब नदियाँ ततथा समस्त
पव॑त दग होते है ।४६। पहिले वृष्टि के अभाव से सभी शुष्क हो जाते हैं
ओर सरसता नाम मात्र को भी कहीं पर नहीं रहती है । इसके पश्चात् वे
सब उक्त सूर्यों से जो अतीय प्रखर हैं प्रधूपित होते हैं। उस काल से' सभी
विवश होंकर निर्देग्ध हों जाते हैं और सूर्यों की किरण से जल भुन जाया
करते हैं ।४७। जङ्खम और स्थावर जो भी धर्मं और अधमे के स्वरूप वाले
हैः उस समय में उन सके देह प्रदाध होते हैं और अन्ययुग में उनके पाप
विनष्ट होकर वे निष्पाप एवं शुद्ध हो जाते हैं ।४८। शुभ अतिबन्ध से वे
'र्यातातप विनिमुक्त हो जाते हैं। इसके उपरान्त वे जन सब तुल्य रूप
वाले जनों के ही साथ में उपपन्त हो जाते हैं ४€।
उषित्वा रजनीं ततर बह्माणोड्व्यक्तजन्मनः ।
पुनः सर्गे भवंतीह मानसा ब्रह्मणः सुताः ॥५०
ततस्तेषूपपन्नेषु जनेस्वलोक््यदासिषु ।
निर्दग्धेषु च लोकेषु तदा सूर्यस्तु सप्तभिः ॥५१
वृष्ट या क्षितौ प्लावितायां विजनेष्वर्णवेषु च ।
साभूद्राश्चैव मेघाश्च आपः सर्वाश्च पाथिवाः ॥।५२
शरमाणा व्रजत्येव सलिलाख्यास्तथानुगाः ।
. आगतागतिकं चैव यदा तत्सलिलं बहु ॥५३
संछाद्येमां स्थितां भ्रुमिमर्णेवाख्यं तदाभवत् ।
आभाति यस्मात् स्वाभासो भाशब्दो व्याप्तिदीप्तिषु ॥५४
सवंतः समनुप्राप्त्या तासां चाम्भो विभाव्यते ।
तदस्तन्ते यस्मात्सर्वां प्रथ्वीं समतततः ।५५
धातुस्तनोति विस्तारे न चैतास्तनवः स्मृताः ।
शर इत्येष शीर्ण तु नानार्थो धातुरुच्यते ॥५६
फिर अञ्यक्त जन्म वाले ब्रह्माजी की एक राक्रिष्तकः वहाँ निवास
करके फिर जब सृष्टि को रचना होती है उसमें बहाँ पर ब्रह्माजी के मानसं