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४१८ ] [ ब्रह्माण्डं पुराणं

सर: स्वम्बुजकट्लरकुमुदोत्पल राजिषु ।

शनं: परिवहन्मंदमारुतापृणेदिङ मुखम्‌ ।४२

वह अरण्य वृक्षों से घिरा हुआ था जिनमें अनेक अम्लान पुष्प थे--

स्वादिष्ट फल थे और हरी-हरी घास वाली भूमि थी तथा बहुत घनी सुस्निश्ध

पन्नों की छाया से सब वृक्ष संयुत थे ।३६। वहां पर सभी ओर कानों को

श्रवण करने में परम प्रिय लगाने वाली आस्र बृल्लों के कोमल पत्रों के खाने

से स्निरध कण्ठो वाली कोमलो की सथुर ध्वनि थी इससे वह वनं संपुष्ट हो.

रहा था ।३७। उसमें सभी ऋतुओं के कुसुम खिल रहे थे जिस पर पभ्रमर

गुञ्जारे करते हुए झल रहे थे । बहुत सी लताएँ ब्र्‌ मों से. लिपटी हुई थीं

जो अपने ही प्रसूनों के गुच्छों के भार से नीचे की ओर झुक रही थीं ।३५।

बह महारण्य ऐसा ही सुषमा सम्पन्न था कि वहाँ के वृक्षों पर सैकड़ों वानरों

के झुण्ड बैठे हुए थे और उस बन में उन्मत्त शिखी- सारङ्कं भ्रमण कर रहे

थे तथा पक्षियों का कल क़ु जन चहँ ओर हो रहा था ।३६। उस वन में विद्या-

घरों की वश्यूटियां गीत गा रही थीं जिससे बहू वन मन का हरण करने

याला द्वों रहा था उस परम गहन वन में किन्नर-किंन्नरियों के जोड़ें

सञ्चरण करते हुए शोभित हो रहे चे (४०। उस बन में बहुत से सरीवर थे

जितसे चारों ओर बन घिरा हुआ था जिनका उपान्त सुस्वरौ वाले हंस-

सारस-चक्रवाक-कारण्डव और शुकं आदिसे समावृत हो रहा थां ।४१। उन

सरोवरों में कमल-कल्द्वार-कुमुद और उत्पल बहुत अधिक परिमाण में विक-

सित द्वो रहे थे । वहाँ पर मन्द मारुत के परिवहन से सभी दिशायें पूरित

हो रही धी ।४२।

एबंविश्नगुणोपेतमधिमाह्य तपोवनम्‌ ।

गल्छनथेनाथ नृपः प्रहषं परमं ययौ ॥ ५३

उपणांताययः सोऽथ संप्राप्याश्रममेडलम्‌ ।

भार्य्यां सहित: श्रीमान्वाहादवरुरोह वे ।। ४४

धुर्यान्विश्रामयेत्यृक्त वा यंतारमवनीपति: ।

आससादाश्रमोपांतं महर्षेभावितात्मन: ।। ४

स श्रृत्वा मुनिशिष्येस्य: कृतनित्यक्रियादरभ्‌ ।

मुनि दष्ट, विनीतात्मा प्रविवेशाश्रमं तदा | ४६

मुनिमध्ये समासीनसूषियृः दै: समन्वितम्‌ ।

ननाम शिरसा राजा भार्याभ्वां सहितो मुदा ॥ ५७ ,

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