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१५ ] [ ब्रह्माण्ड पुराण

।१६। है महाभाग ! मेरी यह विनम्न प्रार्थता है गौरम बारम्बार आपको

शिर से प्रणाम करके आपसे विनती करता हूँ कि आप कोन हैं--मुझे अपना

सत्य स्वरूप दिखला दीजिए-- मैं आपके लिए दोनों हाथ को जोड़कर विनय

कर रहा हूँ ।१४।

इत्युक्त वा तं महाभाग ज्ञातुमिच्छन्भृगूद॒ह: ।

उपविश्य ततो भुमौ ध्यानमास्ते ममाहितः । १५

बद्धपद्मासनो मौनी यतवाक्कायमानसः ।

निरुदधप्राणसंचागो दध्यौ चिरमुदारधीः ॥१६

सन्तियम्येद्रियग्रामं मनो हृदि निरुध्य च ।

चितयामास देवेशं ध्याहृष्टधा जगद्गुरुम्‌ ।। १७

अपश्यच्च जगन्नाथमात्मसंधान चक्षुषा ।

स्वभक्तानुग्रहकरं मृगव्याधस्वरूपिणम्‌ ॥ १८

तत उन्मील्य नयने शीघ्रमुत्थाय भार्गवः ।

ददशं देवं तेनैव वपषा पुरतः स्थितम्‌ ॥॥ १६

जात्मनोऽनुग्रहार्थाय शरण्यं भक्तवत्सलम्‌ ।

आविभूतं महाराज दृष्ट्वा रामः ससंभ्रमम्‌ ॥२०

रोमाञ्चोदिभन्नसर्वागो हर्षाश्र्‌ प्लुततोचन: ।

पपात पादयोभू मौ भक्तया तस्य महामतिः ॥२१

है महाभाग ! उस शवर के वेषधारी से यह इतना कहकर उस भृगू-

द्वह ने सत्य स्वरूप के ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा करते हुए भूमि पर बैठकर

वह्‌ परम समाहित होकर ध्यान में संलग्न हो गया था ११५। उस उदार

बुद्धि वाले ने पदुमासन बाध लिया था और मौन होकर वाणी-शरीर और

मन को संयत कर लिया था । फिर उसने प्राण वायु के सञ्चार का निरोध

करके चिरकाल पर्यन्त ध्यान लगा लिया था ।१६। इन्द्रियों के समूह को

भली भाँति नियमित करके हुदय में मन को निरुद्ध कर लिया ओर फिर

ध्यान की ही हष्टि से जगदगुरु दैवेश्वर का चिन्तन किया था ।१७। और

फिर आत्म सन्धान की चक्षु से उत्त जगतो कै स्वामी-अपने भक्तों पर परम

अनुग्रह करने वाले को मृगो के शिकारी व्याध के स्वरूप को धारणकरने

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